उ. प्र. के शहरी स्थानीय निकाय के चुनावों में भाजपा की करारी हार
SANDEEP PANDEY
2 दिसम्बर, 2017 के अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर खबर थी कि भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश के शहरी स्थानीय निकाय के चुनावों में अभूतपूर्व सफलता मिली। साथ में मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ की अपने दोनों में से एक उप मुख्य मंत्री अथवा भाजपा राज्य अध्यक्ष को मिठाई खिलाते व सभी द्वारा विजय का प्रतीक उंगलियों से अंग्रेजी का वी अक्षर बनाते हुए तस्वीर भी।
इससे ज्यादा सत्य से परे कोई बात ही नहीं हो सकती। भाजपा को कुल मिला कर स्थानीय निकाय चुनावों में 18.1 प्रतिशत स्थानों पर सफलता मिली है। विपक्ष का और खासकर निर्दलीय उम्मीदवारों का बोलबाला रहा है। यदि निर्दलीय कोई एक दल होते तो उन्होंने अभूतपूर्व सफलता पाई है।
सिर्फ एक पद के लिए जिसपर भाजपा को सफलता मिली है वह है महापौर का। 16 बड़े शहरों में से 14 भाजपा के महापौर चुने गए हैं। किंतु यहीं भाजपा की सफलता की कहानी का अंत भी हो जाता है। इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए क्योंकि शहरों में कई वर्षों से भाजपा का ही दबदबा रहा है। बल्कि इन स्थानों पर भाजपा नहीं जीतती तो अचरज की बात होती। हलांकि यह भी सत्य है महापौर व नगर पालिकाओं के चुनाव में जहां ई.वी. एम. मशीन का इस्तेमाल हुआ वहीं भाजपा को कुछ सफलता प्राप्त हुई है। बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से गायब होने की भी शिकायत मिली है। किंतु महापौर के स्थान को छोड़ शेष जिन पदों के लिए चुनाव हुए उसमें भाजपा की करारी हार हुई है। आंकड़े इस बात की पोल खोल कर रख देते हैं।
इन्हीं नगर पालिकाओं में जहां भाजपा के 14 महापौर जीते हैं, भाजपा सिर्फ 596 सभासदों के पद पर विजयी रही जबकि विपक्ष के 703 उम्मीदवार चुनाव जीते हैं। इसमें समाजवादी पार्टी के 202 व बहुजन समाज पार्टी के 147 सभासद चुने गए।
नगर पालिका परिषद के अध्यक्ष पद के लिए भाजपा के 70 उम्मीदवार जीते जबकि विपक्ष के 128। सपा के 45 व बसपा के 29 अध्यक्ष हैं। यानी सपा-बसपा के संयुक्त रूप से भाजपा से ज्यादा अध्यक्ष हैं। अब यदि बात नगर पालिका परिषद के सदस्यों की की जाए तो भाजपा के 922 सदस्यों की संख्या निर्दलीयों की 3380 के कहीं आस-पास भी नहीं। संयुक्त विपक्ष के कुल 4338 सदस्य हैं। सपा के 477 व बसपा के 262 सदस्य हैं। आम आदमी पार्टी ने 17 स्थानों पर सफलता पाई।
नगर पंचायत के अध्यक्ष पद पर निर्दलियों की संख्या किसी भी दल से ज्यादा है। नगर पंचायतों में 182 निर्दलीय अध्यक्ष होंगे। भाजपा के सिर्फ 100 हैं और सपा के 83 कोई बहुत पीछे नहीं हैं। बसपा ने भी भाजपा के आधे यानी 45 अध्यक्ष पदों पर विजय पाई है। दो अध्यक्ष आप के भी होंगे। यदि हम देखें कि नगर पंचायतों में 3875 निर्दलीय सदस्य विजयी रहे हैं तो
जनता के मन का पता चलता है। भाजपा के सिर्फ 664 सदस्य हैं और सपा 453 पद लेकर भाजपा से थोड़ा पीछे ही है।
इन चुनावों में कुल 12,644 पदों पर विपक्ष के 10,278 प्रतिनिधियों ने सफलता अर्जित की है। यदि कोई गुणगान करने लायक है तो वे निर्दलीय हैं जिन्होंने 61 प्रतिशत स्थानों पर विजय पाई है।
तो सवाल यह उठता है कि संचार माध्यम भाजपा की काल्पनिक विजय का उत्सव क्यों मना रहे हंै? उनकी क्या मजबूरी है? क्या उसे नियंत्रित किया गया है ताकि उ.प्र. स्थानीय निकाय चुनाव परिणाम का कोई असर इसी माह गुजरात विधान सभा के लिए होने वाले चुनाव पर न पड़े? महापौर के पद को छोड़ दिया जाए तो निर्णायक ढंग से जनता ने भाजपा को अस्वीकार किया है जबकि उसने अन्य दलों की तुलना में कहीं अधिक धन खर्च किया और मुख्य मंत्री आदित्यनाथ को चुनावी सभाओं को सम्बोधित करने मैदान में उतरना पड़ा। जबकि अखिलेश यादव व मायावती ने खुद कोई प्रचार नहीं किया और स्थानीय नेताओं व कार्यकर्ताओं के भरोसे ही रहे।
स्पष्ट है कि नरेन्द्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के करिशमे फीके पड़ रहे हैं। आम इंसान नोटबंदी, जो असल में नोटबदली था, व जी.एस. टी. से प्रभावित हुआ है। लोगों के व्यवसायों को धक्का लगा है। बेरोजगारी बढ़ी है व आय घटी हैं। चाहे स्वच्छ भारत अभियान हो जिसके लिए सरकार अलग से कर ले रही है अथवा उज्जवला योजना जिसमें गैस का कनेक्शन तो मुफ्त मिल जाता है लेकिन गैस सिलेण्डर पर कोई सब्सिडी नहीं, लोगों के खर्च बढ़ गए हैं। चूंकि लोगों को किसी भी सरकारी योजना का सीधा लाभ नहीं मिल रहा अब वे खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं अथवा ऐसा लग रहा है कि सरकार उन्हें बेईमान समझ उनके पैसे के लेन-देन के ऊपर कड़ी निगरानी रख रही है। अर्थव्यवस्था बुरी तरह मंदी के दौर से गुजर रही है और लोगों में निराशा का माहौल है। ऐसे में आश्चर्य होता यदि लोग भाजपा को भारी बहुमत से जिताते जैसे चित्र प्रस्तुत किया जा रहा है।
भाजपा एक खर्चीले संचार अभियान से सत्ता में पहुंची थी और अभी भी लोगों की आंखों में धूल झोंक रही है। संचार माध्यमों को उसने अपने बस में कर लिया है। यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं। जब संचार माध्यम सरकार को जवाबदेह बनाने की अपनी भूमिका छोड़ सरकार, या उससे भी बुरा शासक दल, के इशारे पर चलने लगें तो हमें कुछ करना पड़ेगा।
संचार माध्यम लोकप्रियता खो चुकी एक जन विरोधी सरकार को सत्ता में बनाए रखने की साजिश में शामिल हो गये हैं। यह लोगों के साथ धोखा है। सभी लोगों को हमेशा हमेशा बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। संचार माध्यमों द्वारा सरकार के लिए पैदा की गई चमक धुंधली पड़नी शुरू हो गई है। सरकार के लिए देश के अंदर व बाहर अपनी विश्वसनीयता बनाए रखना संकट का विषय बन गया है। संचार माध्यमों से अलग होकर विशलेषण करने पर पता चलता है कि नरेन्द्र मोदी की तमाम विदेश यात्राओं के बावजूद भारत की हैसियत विश्व पैमाने पर गिरी है। बड़े देशों जैसे अमरीका, चीन व पाकिस्तान से हमारे सम्बंध खराब हो गए हैं व नेपाल और मालद्वीप जैसे छोटे देश हम पर भरोसा नहीं करते।
गोरखपुर मेडिकल कालेज के अस्पताल में मरने वाले बच्चों के लिए कुछ करने के बजाए योगी आदित्यनाथ धार्मिक मुद्दों को केन्द्र में लाना चाहते हैं। अयोध्या फिर चर्चा में हैं हलांकि अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण से देश के आम इंसानों की समस्याएं कैसे सुलझेंगी यह वह नहीं बताते। प्रतीकात्मक राजनीति पर जोर है और चूंकि सरकार के पास लोगों को देने के लिए कुछ नहीं वह संचार माध्यमों के भरोसे ही चलना चाहती है।
(संदीप पाण्डेय is a Magsaysay awardee based in Lucknow)