खुला खत: योगी जी, होली और ईद दोनों गले मिलने के त्यौहार हैं
कृष्ण प्रताप सिंह
आदरणीय योगी आदित्यनाथ जी,
मुझे मालूम है कि मैं आगे जो कुछ लिखने जा रहा हूं, उसे आप अन्यथा ले सकते हैं, इसलिए कि तथ्यों को बिना तोड़े-मरोड़े उनके वास्तविक रूप में लेने की दीक्षा तो आपने, कहते हैं कि, मुख्यमंत्री बनने के बावजूद अभी ली ही नहीं है। लेकिन होली की मस्ती है कि अभी भी दिल व दिमाग पर ऐसी छाई है कि छिपा नहीं पा रहा आपसे कि अभी जब मैंने आपके लिए ‘आदरणीय’ शब्द लिखा, मुझे मेरे प्रिय कवि स्वर्गीय रघुवीर सहाय की ‘अधिनायक’ कविता खासी शिद्दत से याद आई। खासकर उसकी आखिरी पंक्तियां, जिनमें वे पूछते हैं कि वह महाबली जनमणमन अधिनायक कौन है, हमारा डरा हुआ मन बेमन होकर भी जिसका बाजा बजाते रहने को अभिशप्त है? फिर तो, डरते-डरते ही सही आपसे यह पूछने का मन भी हुआ कि देश के जनगण ने जिस लोकतंत्र को इस उम्मीद में अंगीकार किया था कि वह हमारे जैसे निर्बलों का बल बनेगा, वह हमारा बचा-खुचा बल भी उस महाबली के खाते में डालकर उसको यों क्यों बलबलाता जा रहा है कि इस करतूत में उसके साथ आप जैसों की मिलीभगत एक खुला हुआ तथ्य हो गयी है?
यों, मेरे निकट एक और तथ्य यह भी है कि उस दिन आपके बरसाना में होली खेलने के थोड़ी ही देर बाद अपनी जीवन संगिनी को बताया कि मेरे दिलोदिमाग में कुछ सवाल कुलबुला रहे हैं और उन्हें पूछने के लिए आपको पत्र लिखने की सोच रहा हूं तो उन्होंने मुझे ‘आ बैल मुझे मार’ की नौबत पैदा न करने की सलाह दी थी। यह भी बताया था कि आप जिस ‘महान’ परम्परा से आते हैं, उसमें सवाल-जवाब की कोई क्षीण-सी भी रस्म नहीं है और इसको लेकर प्रायः गर्वोन्मत्त रहने वाले आप किसी कारण कुपित हो गये तो मुझे लेने के देने पड़ जायेंगे। फिर भी मुझे कंपकंपी नहीं छूट रही। इसलिए कि मथुरा में कही आपकी वह बात अभी भूली नहीं है कि जैसे सबको वैसे ही आपको भी होली खेलने का हक है। मैं आश्वस्त हूं कि जब आपने ऐसा कहा तो अपने सबको में मुझे भी जरूर शामिल किया होगा। फिर हमारे यहां होली पर किसी की कही किसी भी बात को लेकर बुरा मानने का रिवाज नहीं है। उसके हुड़दंग में सब कुछ ‘बुरा न मानो होली है’ के हवाले हो जाता है और कुछ सयाने यह कहकर बुरा मानने वालों की खिल्ली तक उड़ाते हैं कि वे बुरा मान भी लेंगे, तो क्या कर लेंगे? रानी रूठंेगी तो अपना सुहाग ही तो ले जायेंगी!!
लेकिन मैं आपसे ऐसा कुछ नहीं कहूंगा। अलबत्ता, यह शिकायत करूंगा कि उस दिन मथुरा के पत्रकारों ने पूछा कि अयोध्या में दीपावली और बरसाना में होली मना चुकने के बाद ईद कहां मनायेंगे तो आपको कोई तर्कसंगत या लोकतांत्रिक जवाब क्यों नहीं सूझा? तमक कर यह कहने पर क्यों उतर आये कि आप हिन्दू हैं। क्यों भूल गये कि पत्रकार यह सवाल आमतौर पर अपनी अहमन्यताओं के लिए जाने जाने वाले योगी आदित्यनाथ नामक शख्स या गोरक्षपीठाधीश्वर से नहीं, देश के सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री से पूछ रहे थे। उस मुख्यमंत्री से, जो सौभाग्य से, और आप द्वारा इस सौभाग्य को दुर्भाग्य बताने से भी यह स्थिति बदल नहीं जाने वाली, उन करोड़ांे प्रदेशवासियों का भी मुख्यमंत्री है, जो ‘दूसरी आस्थाओं के कारण’ हिन्दू नहीं हैं। भले ही उसने समता, न्याय और बन्धुत्व पर आधारित भारत के संविधान के तहत पद और गोपनीयता की शपथ ले रखी है, जो उसे हिन्दुओं और गैरहिन्दुओं में भेदभाव करने की इजाजत नहीं देती।
विश्वास कीजिए मेरा, उस शपथ का मान रखकर पत्रकारों के सवाल पर मुसकुराते हुए आप उन्हें अपने ईद मनाने की जगह बताते या हंसकर कहते कि होली और ईद दोनों ही गले मिलने के ही त्यौहार हैं और उनमें फर्क करके आपको गले काटने वालों के साथ खड़े नहीं होना, तो आप उतने ही बड़े हो जाते, जितने उस रोज छोटे हो गये थे, जब आपने धर्मनिरपेक्षता को स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा झूठ बता डाला था। लेकिन आज जाने दीजिए उस बात को, क्योंकि आपके उस झूठ को तो आपके लोगों ने ही यह कहकर बेपरदा कर डाला था कि हिन्दुओं से ज्यादा धर्मनिरपेक्ष कौम तो दुनिया में कोई है ही नहीं। तब आपने भी यह कहने की हिमाकत नहीं ही की थी कि हिन्दू धर्म की बुनियाद में जो धर्मनिरेपक्षता या कि सर्वधर्मसमभाव समाया हुआ है, झूठ होने के कारण वह भी छद्म है।
लेकिन ईद का जिक्र आया और किसी कारण आपको मालूम नहीं था तो जरा इतिहास मंे जाने का अपने लोगों वाला शगल दोहरा लेते। होली की बहारों के मस्तमौला शायर नजीर अकबराबादी से पूछ लेते या फिर नजीर बनारसी से, ईद और होली पर कुछ नाशुक्रों को छोड़ किसी को भी अपना हिन्दू या मुसलमान होना याद नहीं रह जाता। ताज्जुब कि आपको यह तो याद रह गया लेकिन यह याद नहीं आया कि ईद मनाने वालों में समय-समय पर ऐसे ‘हरिजन’ भी होते आये हैं, जिन पर ‘कोटिक हिन्दू वारिये’ की परम्परा रही है? तिस पर गजब यह कि अल्लामा इकबाल ने जिन राम को इमाम-ए-हिन्द बताया था, उन्हीं की अंधभक्ति के जुनून में ईद से सायास परहेज बरतकर आप खुद को ही नहीं, भगवान राम को भी सीमित किये डाल रहे हैं!! आपकी इसी संकीर्ण हिन्दू दृष्टि या राजनीति के चोले में बरती जा रही गैरराजनीतिक टुच्चई के चलते भगवान राम की अयोध्या के संत-महंत तक भाजपाई, सपाई, बसपाई, कांगे्रसी और कम्युनिस्ट हो चले हंै और आपस में लड़ते-भिड़ते व ‘कटक्जुज्झ’ करते रहते है। गोकि सबके सब आपकी तरह हिन्दू होने का दावा करते हैं। विडम्बना यह कि फिर भी, आपको अपने उस अपराध का भान तक नहीं जिसके कारण घट-घटव्यापी राम सिर्फ हिन्दुओं के होकर रह जा रहे हैं और आपका हिन्दू होना देश तो क्या हिन्दुओं की एकता की भी गारंटी नहीं दे पा रहा। याद कीजिए, गोविन्द पानसरे, एमएम कलबुर्गी और नरेन्द्र दाभोलकर के साथ गौरी लंकेश भी हिन्दू ही थीं, जिनसे हिन्दू हत्यारों ने ही जीने का अधिकार छीन लिया!
क्षमा कीजिएगा, ऐसे कठिन समय में, आप चाहें तो इसे हिन्दू होने के अधिकार से ही मान लें, आपको एक बिना मांगी सलाह देने की धृष्टता कर रहा हूं। इस बार ईद आये और, चूंकि आपके मुंह से निकली गंदी बात दूर तक जा चुकी है, कहीं और जाते किंचित शरमाइये तो कहा-सुना माफ की तर्ज पर अपने वसीम रिजवी व मुख्तार अब्बास नकवी जैसे भाइयों और नहीं तो उस मुस्लिम मंच के युवा सदस्यों के साथ ही गले मिलकर सेवइयां खा डालिये, जो अयोध्या में ‘वहीं’ राममन्दिर के निर्माण लिए मुसलमानों को राजी करने हेतु बड़ा पसीना बहा रहे हैं। वरना हसरत रह जायेगी कि मुख्यमंत्री बनकर भी न गंगा जमुनी संस्कृति का ताना बाना तोड़ पाये और न उसका लुत्फ ही उठा पाये। यानी न माया मिली और न राम।
मेरी इस तजवीज से किंचित भी हिच हो आपको तो मुझे बताइये-कैसे हिन्दू हैं आप और हिन्दू होना आपको ईद मनाने से, खासकर गले मिलने से, क्योंकर रोकता है? कई लोग तो कहते हैं कि आपको हिन्दू शब्द भी उन्हीं ईद मनाने वालों ने ही दिया है। जहां तक मैं जानता हूं, महात्मा गांधी जैसा हिन्दू होना तो आपको कतई गवारा नहीं होगा। बाबासाहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर जैसा भी नहीं, जो पैदा भले ही हिन्दू के रूप में हुए, हिन्दू के रूप में दुनिया से जाना स्वीकार नहीं कर पाये। उसी लखनऊ में, जहां आजकल आपका राज है, 1857 में बिरजिस कदर की नवाबी के दौरान ईद, दशहरा और दीवाली सब साथ-साथ मनाने वाले हिन्दू भी आपके आदर्श नहीं ही हो सकते। लेकिन.. .यहां एक पल रुककर मेरा आपसे यह पूछने का मन हो रहा है कि वे न सही, ‘हिन्दू तन-मन हिन्दू जीवन’ का उद्घोष करने वाले अटलबिहारी वाजपेयी हमारे बीच रहकर भी आपके आदर्श क्यों नहीं रह गये हैं? क्या आपने उनके प्रधानमंत्री या लखनऊ के सांसद होने के दिनों में उन्हें एक बार भी लखनवी तहजीब में रंगे नहीं देखा? लेकिन क्या बताऊं, याद आ रहा है कि जिन डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार और माधव सदाशिव गोलवलकर के नामों का आप लोग प्रायः रट्टा मारते रहते हैं, उनकी तो इतनी-सी भी नसीहत नहीं मानते कि राम व कृष्ण को महापुरुष ही रहने दीजिए, ईश्वर मत बनाइये। फिर? दीनदयाल उपाध्याय या विनायक दामोदर सावरकर के नाम लें तो वे भी ईद मनाने की मनाही नहीं ही कर गये हैं। हां, सावरकर गाय की पूजा की मनाही अवश्य कर गये हैं। यह कहकर कि इस सृष्टि में ईश्वर के बाद सीधे मनुष्य का स्थान है और पशु की पूजा, वह गाय की ही क्यों न हो, मनुष्य का अपमान है।
अलबत्ता, नाथूराम गोडसे की बाबत मुझे नहीं मालूम और आप संत कबीर के उन ‘दोऊ’ में से एक है,ं जिनके बारे में वे राह न पाई वाली बात कहते हैं, तो आप जानिये और आपका काम जाने। तब आपका मर्ज लाइलाज है और मुझे लगता है कि इसी के पलते आप बारम्बार अपने हिन्दू होने की घोषणा करते रहते हंै। कई बार अलानाहक भी। हो न हो, आपके मन में छिपा हुआ कोई चोर आपसे यह सब करवाता हो। वरना जो टोपी लगाये रहता है, उसे बार-बार कहने की जरूरत नहीं पड़ती कि उसने टोपी लगा रखी है। सच बताइये, कहीं मोहन भागवत की तरह किसी असुरक्षा ग्रंथि से तो नहीं पीड़ित हंै आप? वरना क्यों लगता है आपको कि अन्यथा लोग न आपको हिन्दू मानेंगे और न जानेंगे? दूसरे करोड़ों हिन्दुओं के साथ तो ऐसा नहीं है। आपके साथ ही क्यों है?
आप कह सकते हैं कि यह आपकी समस्या है और आप उससे खुद निपट लेंगे। लेकिन ऐसा कहकर आप एक नई गलती करेंगे, क्योंकि यह समस्या इस अर्थ में आपसे ज्यादा हमारी है कि उसकी आड़ लेकर आप हमारे देश के लोकतंत्र से कृतघ्नता पर आमादा हैं। वह भी तब जब आपके पूर्णकालिक नेता न होते हुए भी उसने आपको कई बार सांसद, फिर मुख्यमंत्री बनाया।
आजकल आप अपनी जिस शक्ति का दुरुपयोग करते हुए अपनी हिन्दुत्व की पहचान को आगे करते रहते हैं, वह शक्ति भी आपको इस लोकतंत्र ने ही दे रखी है। मथुरा के पत्रकारों के सवालों के पीछे भी इस लोकतंत्र की ही शक्ति थी और यह जो मैं आपकी ‘शान में गुस्ताखी’ कर पा रहा हूं, उसके पीछे भी सिर्फ मेरा दुस्साहस नहीं, लोकतंत्र का दिया साहस भी है ही।
सोचिये जरा, ये शक्तियां एकबारगी तिरोहित हो गयीं तो? खुदा न खास्ता, आपके पितृसंगठन का इस लोकतंत्र के खात्मे यानी हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का मन्सूबा कभी पूरा हो गया, जो आप जैसे उसके नादान दोस्तों की बिना पर ही हो सकता है, तो आपकी यह शक्ति पल भर में कपूर-सी या फिर भाप बनकर उड़ जायेगी। फिर एक दो तीन चार के क्रम में गंवारों की तरह आपकी नागरिकता का दर्जा तय किया जायेगा। ऊपर से नीचे। तब आपको सबसे ज्यादा वफादारी का सिला सबसे ज्यादा नुकसान के रूप में मिलेगा। क्या तब भी आप ऐसी ही निष्ठा के साथ अपने हिन्दू होने पर अकड़ सकेंगे? अगर नहीं तो हे योगी जी महाराज! इससे पहले कि आप अपने ही किये विस्फोट के शिकार हो जायें या आपकी कुल्हाड़ी आपके ही पैर काट डाले, बराये मेहरबानी बाबासाहब के संविधान और मनु महाराज की स्मृति का फर्क समझ लीजिए।
जितनी जटिल उसकी सौ गुनी कुटिल और जितनी कुटिल उसकी सौ गुनी जटिल यह स्मृति जिन्हें भी फंसा पाती है, पहले ऊंच-नीच में भरमाती और आपकी तरह ईद से ही नहीं, क्रिसमस और बहुत से नापसंद लोगों से घृणा करना सिखा देती है। उनकी देशभक्ति पर शक करना भी। फिर फांस गहरी होते ही बेहतर हिन्दू बन सकने की सारी संभावनाएं एकमुश्त समाप्त कर देती है। अकारण थोड़े ही है कि हिन्दू मोटे तौर पर भी दो तरह के होते हैं: एक वे जो वेद पढ़ सकते हैं और दूसरे जो नहीं पढ़ सकते। एक वे जो महंत भी हो सकते हैं और पुजापे के अधिकारी भी और दूसरे वे जो कितने भी बड़े महंत हों, पुजारी नहीं हो सकते। दूसरी निगाह से देखें तो एक धर्मप्राण हिन्दू होते हैं और दूसरे धर्मभीरु। ऐसे कई प्रकार हो सकते हैं, लेकिन अभी इनकी ही बात।
धर्मप्राण वे हैं जो अपने धर्म से प्राण ग्रहण करते हैं। न सिर्फ अपने बल्कि औरों के लिए भी। इसके उलट धर्मभीरु वे हैं जो खुद तो धर्म से डरते ही हैं, उसका नाम लेकर दूसरों को भी डराते हैं। उससे प्राण नहीं ग्रहण करते, बल्कि उसकी आड़ में प्राणहरण की साजिशें रचाते हैं। योगी जी, क्या पता, आपको मालूम है या नहीं कि
ज्यादातर धर्मप्राण हिन्दू अभी भी आपको दूसरी वाली श्रेणी में ही रखते हैं-आपकी सरकार द्वारा आपके खिलाफ मुकदमे वापस ले लिये जाने के बाद भी। क्या पता, आपको आपके इतिहास की सजा देते हैं या.. .! यों, किसे नहीं मालूम कि आपकी जमात शासकों की क्रूरताओं को उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर आंकती रही है और आपने खुद को वैसे ही मूल्यांकन के लिए प्रस्तुत कर उसका काम आसान कर दिया है। कोढ़ में खाज यह कि आपके योगी होने पर किये जा रहे शक आस्थाओं या धारणाओं के बजाय अंतः साक्ष्यों पर आधारित हैं। आप जिन बाबा गोरखनाथ की पीठ के अधीश्वर हैं, उन्होंने खड़-खड़ काया और निर्मल नेत को योगियों की पहचान बताया था। आप खुद से पूछिये कि आज की तारीख में ये दोनों आपके पास हैं क्या? नहीं है, तो आप योगी कैसे हो सकते हैं? योगी होने के लिए तन और कपड़े ही नहीं, मन को भी रंगाना पड़ता है। आपको हो या नहीं, बहुतेरों को विश्वास है कि जिस दिन आप अपना मन रंगा लेंगे, इस भ्रम के पार उतर जायेंगे कि आप सारे हिन्दुओं के प्रतिनिधि हैं और आपको उन सबकी ओर से बोलने का अधिकार है। अभी तो जितने हिन्दू आपको या आपकी पार्टी को वोट देते हैं, उनसे ज्यादा कतई नहीं देते।
शायद वह इसी की खीझ है, जिसे उतारने के चक्कर में आप औरों से तो लड़ते ही हैं, कई बार अपने आप से भी भिड़ जाते हैं और जो आप कतई नहीं हैं, खुद को वही सिद्ध करने में लग जाते हैं। लेकिन क्या कीजिएगा, इस काम में विफल होना आपकी नियति है। देखते नहीं आप कि चार साल से ज्यादा प्रधानमंत्री रहने के बावजूद आपके महानायक नरेन्द्र मोदी एक पल के लिए भी एतबार नहीं कर पाते कि वे सचमुच देश के प्रधानमंत्री हैं। ग्यारह महीने तक मुख्यमंत्री रह लेने के बावजूद आपको भी नहीं ही लगता कि आप सारे प्रदेशवासियों के मुख्यमंत्री हैं। नरेन्द्र मोदी अपने मन की ही सुनते, माफ कीजिएगा, सुनाते थके जा रहे हैं और आपने अपने भगवा रंग को ऐसी दीवार में बदल लिया है कि उसके पार कुछ देख ही नहीं पाते। यह भी नहीं कि आपकी कुर्सी पर आपसे पहले कई आपसे बड़े और बेहतर हिन्दू बैठ चुके हैं। डाॅ. सम्पूर्णानंद और कमलापति त्रिपाठी जैसे हिन्दू। उनमें और आपमें बस एक ही फर्क है। वे जैसे ही अपनी कुर्सी पर बैठते थे, मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पंचपरमेश्वर’ के पात्रों समझू साहु और जुम्मन शेख की आत्माएं उनके अंतस्तल में प्रविष्ट हो जाती थीं, जो आपमें हो ही नहीं पा रहीं! तभी तो कई लोग कहते हैं आपसे भले तो आपकी जमात के गिरिराज सिंह जैसे लोग ही हैं जो भले ही आमतौर पर
गैरहिन्दुओं से जोर-जबरदस्ती की बातें करते हैं, कभी-कभी उनको राम के वंशज और इस नाते हिन्दू साबित कर अपनाने के द्रविड ़प्राणायाम में भी निरत होते हैं। सवर्ण हिन्दुओं द्वारा जिस विराट या विशाल हृदयता को हिन्दू होने की अनिवार्य शर्त बताया जाता है, उससे उनका कुछ तो वास्ता है। उनके मनमौजी और उदार होने की संभावनाएं एकदम से तो नहीं मरी हैं।
अंत में एक और जरूरी बात। हमारे लोकतंत्र में हजार खामियां हों लेकिन उसमें एक बड़ा गुण भी है। हमारी चेतनाओं के प्रवाह को वह एकदम से नहीं रुकने देता। इस कारण ‘इमोशनल अत्याचार’ कितना भी विकट हो, एक न एक दिन लोग उसके पार चले ही जाते हैं। धर्मप्राण हिन्दू तो पांच हजार सालों से ऐसा करते आ रहे हैं, इसलिए उन्हें इसका कुछ ज्यादा ही अभ्यास है। सो आपके लिए बेहतर होगा कि उस दिन की सोच कर डरिये, जिस दिन आपके इमोशनल अत्याचार का सच उन पर खुलेगा। यों, वह खुलना शुरू भी हो गया है। फैजाबाद के ‘बेदार’ नाम के नामचीन शायर इसीलिए तो सीधे आपको इंगित करते हुए कहते हैं: मैं भी हिन्दू हूं मगर हरदम ये रखता हूं खयाल, मेरी करतूतों से मेरा धर्म शर्मिन्दा न हो। मैं पूछना चाहता हूं कि वे आम आदमी के तौर पर यह खयाल रख सकते हैं तो आप मुख्यमंत्री के तौर पर क्यों नहीं रख सकते?
अभी भी बहुत देर नहीं हुई है। सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते और सही शुरुआत देर से भी की जाये तो भी सही ही रहती है। सो, मैं तो कहता हूं, यह शुरुआत कीजिए और आइये किसी दिन, आपको अपने गांव ले चलूं। वहां क्या हिन्दू और क्या मुसलमान, सब आपका नाम लेकर बार-बार पूछ रहे हैं कि यह भी कोई बात हुई भला कि हम मनाई ईद अऊर तू मनावा होली, न तू हमसे बोला, न हम तुहंसे बोली? आप सहमत होंगे, अबोला से विषफल के अलावा कुछ नहीं पैदा होता। इसलिए बोलचाल तो बनी ही रहनी चाहिए। है न?
आदर, अभिवादन और आपका थोड़ा ज्यादा समय लेने के कुसूर के लिए माफी की अर्जी के साथ।
आपका: कृष्ण प्रताप सिंह