कहीं फिर ठगे तो नहीं गए किसान ?
कहीं फिर ठगे तो नहीं गए किसान ?
महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार को वामपंथी तेवर लिए हुए किसान आंदोलन के सामने कुछ झुकना पड़ गया।
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की और से उनके एक मंत्री ने घोषणा कर दी है कि किसानों की अधिकतर मांगें लिखित रूप से मान ली गई हैं। इस बारे में एक लिखित समयबद्ध समझौता को अमली जामा पहनाने के लिए राज्य सरकार ने एक कमेटी बना दी है। कमेटी की सिफारिशें राज्य विधानमंडल के आगामी मानसून सत्र में पेश की जाएंगी। यह घोषणा बड़े ही नाटकीय अंदाज में 6 मार्च की शाम नासिक से लाल झंडा लिए हुए तकरीबन एक लाख किसानों , आदिवासियों के ' लॉन्ग- रेड - मार्च ' के मुंबई पहुँचने के 24 घंटे के भीतर की गई।
किसान-आदिवासी , 12 मार्च की शाम से विधान भवन का बेमियादी घेराव शुरू करने वाले वाले थे। उसके ऐन पहले यह घोषणा कर दी गई।मुख्य सचिव की निगरानी में तैयार हुए इस समझौता के तहत आशा की जा रही थी कि राज्य सरकार इसे विधानमंडल के चालू बजट-सत्र में अगले दिन ही पेश कर देगी।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सिद्धांतकारों में शामिल सुनीत चोपड़ा ने दिल्ली से इस स्तम्भकार के साथ फोन पर बातचीत में यही आशा व्यक्त की थी। वह अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं जो इस ' लॉन्ग- रेड - मार्च ' की आयोजक , अखिल भारतीय किसान सभा का बिरादराना संगठन है। समझौता का अधिकृत पूरा विवरण नहीं मिला है। हाल के दिनों में में राजस्थान के बाद महाराष्ट्र दूसरा राज्य है जहां की भाजपा सरकार , किसानों के वामपंथी आंदोलन के दवाब में आकर उनकी मांगें मानने की घोषणा करने पर मजबूर हुई है।
लेकिन क्या सरकार किसान आंदोलन के सामने सच में मजबूर हुई है ? लगता तो होगा पर वास्तव में ऐसा नहीं है। सरकार ने साम - दाम से लॉन्ग- रेड - मार्च में शामिल सभी को रातों -रात विशेष रेल गाड़ी से वापस भिजवा दिया। समझौता को कमेटी , विधानमंडल सत्र में फंसा दिया।
इस आंदोलन की खबरें मीडिया ने समुचित रुप से नहीं दी हैं। मीडिया तभी चौंकी जब शनिवार की शाम लाल झंडा लिए हुए तकरीबन एक लाख किसान , आदिवासी मुम्बई के नाका तक आ गए। इस ' लॉन्ग- रेड - मार्च ' की रिपोर्टिंग कुल मिलाकर सतही ही नजर आई। मीडिया के बड़े हिस्से ने आंदोलन को तवज्जो नहीं दी। अन्य हिस्से ने मूल मुद्दों से ज्यादा उसमें शामिल लोगों की संख्या , उनके राजनीतिक झुकाव को टटोलने की तांका -झांकी , उनको किसने समर्थन दिया , किसने नहीं , कितना समर्थन दिया , कितना नहीं , आदि पर ध्यान दिया. इसको अंग्रेजी में ट्रीवियालाइजेशन और हिंदी में रायता फैलाना कह सकते हैं. दैनिक जागरण ने किसानों के आंदोलन को छापने लायक ही नहीं समझा।
अमर उजाला अख़बार के दिल्ली संस्करण में इसे एक कॉलम में समेट दिया।दैनिक भास्कर के महाराष्ट्र संस्करण में किसान मोर्चा के मुंबई पहुंचने की ख़बर है।
भारतीय टीवी न्यूज चैनलों को फिल्म अदाकारा , श्रीदेवी की दुबई में 24फरवरी को एक आलीशान होटल के अपने कमरे के बाथरूम में बाथटब में डूबने से हुई मौत की खबर मिलने से लेकर मुम्बई में उनकी राजकीय अन्त्येष्टि तक की लगातार तीन दिन , तीन रात तक " लाइव " रिपोर्टिंग दिखाने से अपनी टीआरपी में फायदा हुआ था। किसानों के लॉन्ग- रेड -मार्च से उसे टीआरपी बढ़ाने का कोई खास मौका हाथ लगता नजर नहीं आया। लेकिन उन्हें सोशल मीडिया के दबाव में किसानों की भी फिक्र करने का स्वांग रचना पड़ गया ।
सोशल मीडिया ने किसान आंदोलन का भरपूर साथ दिया. स्वतःस्फूर्त ग्राउंड रिपोर्टिंग से लेकर वस्तुपरक खबरें देने , तरह - तरह के फोटो , वीडियो सामने लाने तक। रचनात्मक तरीके से आंदोलन की जड़ का मूल्यांकन करने में सोशल मीडिया ने पारंपरिक मीडिया को बौना-सा बना दिया । सोशल मीडिया से ही पारम्परिक मीडिया , सरकार और अवाम को भी जानकारी मिली .फेसबुक का यह संदर्भित सचित्र -पोस्ट वायरल हो गया जिसमें शायर , इकबाल की बारीक बात पढ़ने-देखने वाले लोगो के बीच किसानों के प्रति अपना-सा दर्द पैदा कर गया।
" जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी / उस ख़ेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो " - इक़बाल। इस पोस्ट के साथ की फोटो , पहले से वायरल थी . पोस्ट में अर्थ भी थे। जैसे दहक़ाँ =किसान, मयस्सर= उपलब्ध ,खोशा-ए-गंदुम= गेहूँ की बालियाँ।
चीन की राजकीय न्यूज एजेंसी शिन्हुआ की हिंदी सेवा ने 08 मार्च 2018 को ही ' महाराष्ट्र में किसानों का लॉन्ग मार्च ' रिपोर्ट में लिखा था कि महाराष्ट्र में कर्जमाफी को लेकर किसान , सरकार से आरपार की लड़ाई लड़ रहे हैं।सरकार के सामने अपनी मांगे रखने के लिए ' ऑल इंडिया किसान सभा ' नासिक से मुंबई तक पदयात्रा पर हैं। लगभग 200 किलोमीटर की इस पदयात्रा में 10 हजार से अधिक किसान शामिल है। 6 मार्च को नासिक से निकले किसानों का कहना है कि वो 12 मार्च को विधानभवन का घेराव करेंगे। कर्जमाफी के अलावा किसान, बिजली बिल माफी और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग भी कर रहे हैं।किसानों का आरोप है कि 34000 करोड़ रुपये की कर्जमाफी की घोषणा के बाद अबतक 1753 किसान आत्महत्या कर चुके हैं।किसानों ने केंद्र और राज्य सरकार पर किसान विरोधी नीति अपनाने का आरोप भी लगाया। इसी न्यूज एजेंसी की अंग्रेजी सेवा द्वारा दो दिन बाद , 10 मार्च को नई दिल्ली डेटलाइन से प्रसारित डिसपैच में मार्च में शामिल लोगों की तादाद 30 हज़ार बताई गई। एनडीटीवी की 11 मार्च की प्रारम्भिक ग्राउंड रिपोर्ट में मार्च में शामिल लोगों की संख्या 35 हज़ार बताई गई।लगभग उसी वक्त ' रिपब्लिकवर्ल्ड ' डॉट- कॉम ने संख्या एक लाख से भी अधिक बताई।
मुम्बई की उप-नगरीय , घाटकोपर लोकसभा सीट से 2014 में निर्वाचित भारतीय जनता पार्टी की नेता एवं दिवंगत केंद्रीय मंत्री प्रमोद महाजन की पुत्री, पूनम महाजन के अनुसार किसानों का यह मार्च " शहरी माओवादियों का षड़यंत्र है ". उन्होंने इसके कोई साक्ष्य नहीं बताये। बस यूं ही जो कुछ सूझा बोल दिया। माओवादी ' शहरी ' भी होते हैं यह ज्ञान , कोई समाजशास्त्री -राजनीतिशास्त्री नहीं सिर्फ वही दे सकती हैं क्योंकि इस निष्कर्ष के पीछे का शोध किसी ट्वीट में तो नहीं अंट सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समर्थक खेमा को किसान मार्च में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के तत्व दिख रहा है। उनके भी इस नतीजे पर पहुंचने का कोई भी तथ्यात्मक आधार नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ एक नाकारात्मक साम्प्रदायिक सोच है। यह सोच सिर्फ इसलिए है कि किसानों के मुम्बई पहुँचने पर उनका स्वागत करने और खाने -पीने का सामान देने वालों में अन्य समुदायों के लोगों के साथ ही मुस्लिम भी थे।
(लेखक यूनाईटेड न्यूज़ ऑफ इण्डिया के मुम्बई ब्यूरो के वरिष्ठ संवाददाता पद से हाल में सेवानिवृत्ति होने के बाद नई दिल्ली लौट अंग्रेजी -हिन्दी अखबारों के लिए सावधिक स्तम्भ लिखते है.)