एक “तीसरे” धर्म से जुड़े अधिकारियों की नियुक्ति से दरकता लोकतंत्र
कठुआ और उन्नाव कांड के खतरनाक संदेश
एक लोकतांत्रिक देश होने के क्या मायने हैं जब बलात्कार को उचित ठहराया जाये? और बलात्कारी को पहले उस भीड़ द्वारा बचाया जाये जो उसके समर्थन में सड़क पर उतरती है और फिर उस प्रशासन द्वारा जो उसके खिलाफ कार्रवाई करने में असमर्थ रहता है? और फिर विश्वास और साम्प्रदायीकरण के संकट की वजह से राज्य की पुलिस को मामले की जांच के लिए एक “तीसरे” धर्म से जुड़े अधिकारियों को लगाना पड़े.
इसका मतलब यह हुआ कि शासकों द्वारा इस देश को उस खड्डे की ओर धकेला जा रहा है जहां कोई कानून नहीं है, जहां घृणा और विभाजनकारी सोच का दबदबा है, और जहां मध्ययुगीन युद्धरत प्रतिद्वन्दी सेनाओं की भांति महिलाओं को संपत्ति के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. संक्षेप में, लोकतंत्र गंभीर खतरे में है. और अगर सत्ता में बैठे लोगों पर कार्रवाई के लिए दबाव नहीं बनाया गया, तो हमें अंतिम रूप से भारतीय लोकतंत्र की मौत का गवाह बनने को मजबूर होना पड़ेगा. फिर चाहे राज्य के चुनाव में कोई हारे या जीते.
यातना और बलात्कार की शिकार मासूम आसिफ़ा की लाश की बरामदगी के बाद से कठुआ कांड का एक संदेश यह है कि कैसे इस बर्बर अपराध को साम्प्रदायिकता के एक उदहारण में तब्दील कर दिया जाये. भारतीय लोकतंत्र का सिर उस वक़्त शर्म से झुक गया जब राज्य की पुलिस ने यह सुझाया कि इस बलात्कार कांड की तहकीकात के लिए एक “तीसरे” धर्म – इस मामले में सिख धर्म - से जुड़े अधिकारियों को नियुक्त किया जाये. यह दर्शाता है कि जम्मू – कश्मीर में साम्प्रदायिकता की जड़ें किस कदर गहरी हो चुकी है और राजनीतिक दलों ने उसे हवा देकर उस बिन्दु पर पहुंचा दिया है जहां भरोसा और विश्वास पूरी तरह से तहस – नहस हो चुका है. और दोनों में से किसी पक्ष का पुलिस बल पर एतबार नहीं है. यह बेहद खेदजनक, दुर्भाग्यपूर्ण और खतरनाक है. इस किस्म की परिपाटी से उस विचार का हमेशा के लिए अंत हो जायेगा जिसके लिए भारत पूरी दुनिया में पहचाना जाता है.
कोई यह सोच सकता है कि जम्मू – कश्मीर और उत्तर प्रदेश में इस किस्म के अपराधों के बारे में भाजपा की चुप्पी या गहरी संलग्नता के खिलाफ विपक्षी दलों को सड़क पर उतरना चाहिए और न्याय की जोरदार मांग के साथ उसे सांप्रदायिक सदभाव बहाल करने के लिए एक जबरदस्त जवाबी अभियान छेड़ना चाहिए. निश्चित रूप से, धर्मनिरपेक्ष आवाजें बलात्कार से कहीं ज्यादा बड़ी आयाम वाली इस घटना के प्रति राष्ट्रव्यापी चिंता जाहिर करने के अलावा जम्मू – कश्मीर में ध्रुवीकृत आवाजों को खामोश कर सकती हैं.
लेकिन विपक्षी दलों की तो छोड़िए, उन प्रमुख महिला संगठनों ने भी बलात्कार की शिकार और मारी गयी लड़कियों, इस किस्म के जघन्य अपराध का विरोध करने पर पीट – पीटकर मार डाले गये पिता और ध्रुवीकृत वातावरण में कानून की खोज में भटकते असहाय लोगों के पक्ष में कोई आवाज़ नहीं उठायी जो हाल में दिल्ली में हुई इस किस्म की घटनाओं पर बेहद मुखर रही थीं. दरअसल, चुप्पी और विभाजनकारी वातावरण को भेदने का कोई भी प्रयास नहीं किया गया.
अब कठुआ मामले को ही लीजिए. इस घटना में जिस किस्म की बर्बरता की गयी है उसे देखकर अतड़ियां ऐंठ जाती हैं. एक आठ साल की मासूम बच्ची वही कर रही थी जो वह रोजाना किया करती थी. वह अपने परिवार के घोड़ों को चराने गयी थी. उसकी सुरक्षा को लेकर उसके माता – पिता मुतमईन थे. पर आसिफ़ा नहीं लौटी. उसके माता – पिता ने जब इस बाबत शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की तो किसी ने भी उनकी बात नहीं सुनी. एक सप्ताह बाद उस मासूम बच्ची की लाश जंगलों से बरामद हुई. उसके बाद से उसके साथ किये गये अमानवीय बर्बरता की जिस किस्म की कहानियां सामने आ रही हैं वो तमाम मानवीय संवेदनाओं को सिहरा देने वाली हैं. उसके शरीर पर दिखायी देने वाली चोटें जिस किस्म की क्रूरता की गवाही दे रहीं थी, उसे शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता.
जब समूचे देश को इस मामले में कार्रवाई करने, बलात्कारियों को गिरफ्तार करने और उन्हें दिल्ली में चलती बस में हुए बलात्कार के दोषियों की भांति “फांसी” देने की मांग के साथ सरकार पर दबाव बनाने के लिए उठ खड़ा होना था, चारों ओर चुप्पी छाई हुई थी. बिना बात के बात को ख़बर के रूप में परोसने को तैयार रहने वाले मीडिया समेत दिल्ली के किसी भी कोने से इस घटना को लेकर कोई आवाज़ नहीं उठी. सिर्फ उस भीड़ का शोर सुनाई दिया जो हाथों में तिरंगा थामे बलात्कारियों के पक्ष में नारे लगा रही थी. वह भीड़ इस मामले में पकड़े गये आरोपी पुलिसकर्मियों को छोड़े जाने का दबाव बना रही थी. और इस भीड़ का नेतृत्व भाजपा विधायकों के हाथों में था. ये भाजपा विधायक अभी भी आजाद घूम रहे हैं और कथित रूप से बलात्कार और हत्या के आरोपियों के समर्थन में आने के लिए इन्हें “नायक” के तौर पर देखा जा रहा है.
इतना ही नहीं, न्याय के लिए लड़ने की जिम्मेदारी जिन्हें संभालनी थी वे वकील भी राज्य पुलिस की अपराध शाखा के विशेष जांच दल के अधिकारियों को कथित बलात्कारियों के खिलाफ न्यायलय में चार्जशीट दायर करने से रोकने के लिए निकल पड़े. अपने मकसद में वकीलों का कामयाब रहना ही अपने – आप में जम्मू – कश्मीर के गरीब लोगों के साथ – साथ लोकतांत्रिक भारत के लिए एक संदेश है. संदेश साफ़ है कि ताक़त के जोर पर कानून को भी कूड़ेदान में डलवाया जा सकता है और शक्ति प्रदर्शन को राज्य सरकार का साफ़ समर्थन है.
जहां राज्य शक्ति प्रदर्शन का समर्थन नहीं करता, वहां वह कार्रवाई करता है. इसे रोजाना जम्मू – कश्मीर में देखा जा सकता है जहां आतंकवादियों और सैनिकों के साथ – साथ बड़ी संख्या में आम नागरिक मारे जा रहे हैं. इसे दिल्ली की सडकों पर भी देखा जा सकता है जहां न्याय और अधिकारों की मांग करते छात्रों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर लाठियों और पानी की बौछारों से हमला किया जाता है और प्रदर्शन में शामिल छात्राओं को भी बेरहमी से पीटा जाता है. लेकिन कठुआ मामले में ऐसा कुछ नहीं होता है. इसके उलट, राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले विशेष जांच दल को वापस मुड़ने को मजबूर होना पड़ता है.
सिख अफसरों को नियुक्त करने के निर्णय के साथ जम्मू – कश्मीर सरकार ने एक तरह से अपनी हार स्वीकार कर ली है और उस सांप्रदायिक आक्रामकता के आगे घुटने दिये हैं जिसके मुताबिक आठ साल की मासूम बच्ची के साथ हुआ बलात्कार भी एक सांप्रदायिक मामला है. इस कदम से न सिर्फ घुमन्तू जनजातियों ने संदेश ग्रहण कर लिया बल्कि जम्मू – कश्मीर देश का पहला ऐसा राज्य बन गया जिसने अलग से सिख अफसरों को लाकर हिन्दू और मुसलमानों के खिलाफ साम्प्रदायिकता को वैधानिकता प्रदान कर दिया है.
अब उन्नाव की घटना को लीजिए. एक किशोरी का बलात्कार होता है. पीड़िता भाजपा विधायक और उसके सहयोगियों का नाम लेती है. उसकी उम्र मात्र 16 साल है. राज्य प्रशासन द्वारा अपनी शिकायत अनसुनी किये जाने से परेशान और हताश होकर वह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आवास पर पहुंच जाती है और वहां आत्महत्या करने की कोशिश करती है. उसके इस कदम से सरकार में कोई सुगबुगाहट नहीं होती, लेकिन वो मीडिया की नजर में आ जाती है. मीडिया उसके साथ घटित घटना के बारे में लिखता है. राज्य की भाजपा को यह सहन नहीं होता है. लड़की के गरीब और कमजोर पिता को स्थानीय भाजपा विधायक के भाई और समर्थकों द्वारा पकड़ लिया जाता है और उसे इतनी बेरहमी से पीटा जाता है कि वो मर जाता है. अब एक वीडियो सामने आया है जिसमें पिटने वाला व्यक्ति साफ़ कह रहा है कि बलात्कार के आरोपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के भाई ने उसके साथ ऐसा किया है.
बहुत हल्ला मचने पर विधायक के भाई को फिलहाल गिरफ्तार कर लिया गया है. लेकिन बलात्कार का आरोपी विधायक योगी आदित्यनाथ से मिलने के बाद अभी भी आजाद है. इसके अतिरिक्त, मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, पीड़िता के गरीब परिवार को धमकाया जा रहा है. सारा गांव दबाव में है. उन्नाव की घटना का सीधा संदेश यह है कि जो कोई भी भाजपा नेताओं और उनके समर्थकों द्वारा किये गये बलात्कार की शिकायत करेगा उसे भुगतना पड़ेगा. न सिर्फ उसे न्याय नहीं मिलेगा बल्कि उसे पीट – पीटकर मार डाला जायेगा और उसके परिवार के बाकी बचे सदस्यों को बराबर धमकाया जायेगा और उनकी जान पर हरदम खतरा बना रहेगा.