गौतम नवलखा के नाम पीयूडीआर के साथी का एक खुला खत
गौतम नवलखा के नाम पीयूडीआर के साथी का एक खुला खत
प्रिय गौतम
घर में नजरबंद हो, इसलिए तुम्हारे नाम एक खुला खत लिख रही हूँ। वैसे इस दौर में खत लिखने का एक नुकसान है । कि कहीं अब यह भी सत्ताधारियों के नुमाइंदों द्वारा निरंतर निर्मित खतों की पटकथा में शामिल न कर लिया जाए, तुम और मैं किसी प्रतिबंधित पार्टी के 'षडयंत्रकारी सदस्य' न बना दिये जाएँ | खैर!
गोरख पांडेय की वह कविता जो तुमने हमारी आखिरी बातचीत में मुझे सुनाई थी अब तक ज़हन में घूम रही है - "उनका डर"।
वे डरते हैं किस चीज से डरते हैं वे
कि तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे
तुम्हारी गिरफ्तारी के बाद से सोच रही हूँ कि आखिर किस बात का डर सता रहा होगा आज के सत्तधारियों को जो तुम जैसे नरमदिल गुस्सैल को कैद करके सुकून पा रहे हैं? पूरी तरह से सार्वजनिक होने के बावजूद, पीयूडीआर की गतिविधियों की निगरानी तो ये करते ही आये हैं, लेकिन अबके इन्होंने ऐसा क्या देख लिया तुममें, तुम्हारी किस बात से भयभीत हैं?
लोकगीत जो तुम गाते हो पीयूडीआर के कार्यक्रमों में वे तो कारण नहीं ? लगता है वे तुम्हारी बुलंद आवाज़ से सच में डर बैठे हैं! आदिवासियों पर हो रहे दमन के खिलाफ, मज़दूरों के हितों के लिए, गटरों में रोज़-रोज़ मर रहे दलितों के लिए, मुसलमानों की हो रही हत्याओं के खिलाफ तुमने जो भी भाषण दिए, उनकी वीडियो ये सभी देख चुके हैं, तुमने जिन रिपोर्टों पर काम किया वे सभी पढ़ चुके हैं ।
तुम्हारी जनवादी अधिकारों पर व्यापक समझ से भयभीत हैं क्या ये? पर वह समझ तो चालीस वर्षों से लोगों के बीच लिख-बोलकर तुम सांझा करते ही आये हो। क्या इन्हें यह लग रहा है कि तुम्हें कैद करने से तुम्हारे विचारों और तुम्हारे द्वारा विगत में किये गए काम को भी कैद कर पाएंगे?
एक 65 वर्षीय की स्फूर्ति से डर रहे हैं? शायद ये जान चुके हैं की आज भी अगर हमारे संगठन में कोई बेहद सक्रिय है तो वह तुम हो। ज़रूर ये उस दिन भी तुम पर नज़र रखे हुए थे जब तुम और हम कापसहेड़ा बॉर्डर पर सुबह-सुबह कपड़ा फैक्ट्री के मज़दूरों के बीच फैक्ट्री परिसर में हो रही दुर्घटनाओं को लेकर पर्चा वितरण करने गए थे ।
इस तानाशाह सरकार को ज़रूर यह भी गम बैठ गया है कि कैसे कोई व्यक्ति इतने वर्षों से जनवादी तौर-तरीकों से कार्यरत है। शायद इन्होंने जनवादी अधिकारों के मुद्दों पर हो रही पीयूडीआर की चर्चाओं की निगरानी में यह गौर किया होगा की तुमसे आधी उम्र के सदस्य किस प्रकार तुमसे बहस करते हैं, तुम पर चिल्लाते हैं, असहमति व्यक्त करते हैं और फिर तुमसे गले मिलकर जाते हैं।
बेशक वे तुम्हारी गति से तो डर रहे हैं | कि कहीं 2019 चुनावों से पहले हमारा काम इनकी पोलों का पुलिंदा न खोल दे | और इनके द्वारा निरंतर देश के अलग-अलग हिस्सों में किये जा रहे मानवाधिकारों के हनन का चिट्ठा न खुल जाए? आखिर क्यों तुम यूएपीए जैसे गैर-लोकतांत्रिक कानूनों के दुष्प्रभावों पर इतने आंकडें इकठ्ठा करने में जुटे थे? लगा दिया न तुम पर भी यूएपीए ! राजनैतिक बंदियों के लिए मांगे रखते-रखते, लो आज बन गए तुम भी एक राजनैतिक बंदी!
अब की बार अपने डरों को इन्होंने "अर्बन नक्सल" का नाम दिया है। राजनैतिक और जनवादी मुद्दों को लेकर कितना संकीर्ण दृष्टिकोण है यह! गोरख पांडेय ने कितना सटीक लिखा था | जब तक ये इन्ही के द्वारा रचे इस खेल से थक हार कर निकलेंगे तब तक कितनी और नज़रें इन्हें घूरती होंगी शायद इसका अंदाज़ा नही है अभी इन्हें।
खैर, तुम अपना ख्याल रखना। तुमसे और तुम्हारे काम से इस देश के जनवादी अधिकार आंदोलन के इतिहास और आज के बारे में जो भी समझा है वह हमेशा साथ रहेगा। तुम्हारी रिहाई के इंतज़ार में |
सादर,
तुम्हारी लड़ाकू दोस्त मेघा
11 सितंबर 2018
(मेघा पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स के साथ 2012 से जुड़ी हुई हैं |)