‘न्याय’: आर्थिक विषमता के बरक्स
कांग्रेस पार्टी के घोषणा – पत्र में एक महत्वाकांक्षी एलान
‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना) में एक परिवार को जीने के लिये न्यूनतम 12 हजार रुपये मासिक आय आवश्यक मानी गई है। इस प्रकार, गरीबी रेखा के साथ एक नई जीवन रेखा तैयार करने का प्रयास किया गया है। इस रेखा से कम आय प्राप्त करनेवाले परिवारों की आमदनी को 12 हजार रुपये के उपर लाया जायेगा। शुरुआती दौर में, सबसे गरीब 20 प्रतिशत यानि 5 करोड परिवारों को यानि लगभग 25 करोड लोगों को जीवन रेखा के उपर लाने का काम किया जायेगा और उनके खाते में प्रतिमाह 6 हजार रुपये नगद राशि जमा की जायेगी। अगर यह योजना सफल होती है, तो बचे हुये परिवारों को भी प्रतिमाह 12 हजार रुपये की जीवन रेखा के उपर लाया जायेगा।
‘न्याय’ की राशि को परिवार के महिला सदस्य के नाम पर जमा करने का विचार महिला और पारिवारिक भावना का सम्मान है। अगर कांग्रेस अपने घोषणापत्र में दिये गये ‘न्याय’ का आश्वासन निभाती है, तो देश की गरीबी दूर करने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगा। यह योजना पूरी दूनिया की गरीबी दूर करने के लिए भी एक नया रास्ता खोल सकती है।
श्रमिकों के श्रम और प्राकृतिक संसाधन से ही संपत्ति का निर्माण होता है। इस संपत्ति पर पूरे समाज का अधिकार है। लेकिन उसके असमान वितरण के कारण विषमता बढी है। औद्योगिकरण के इस दौर में आर्थिक विषमता चरमसीमा पर पहुंची है। पूरी दुनिया की 75 प्रतिशत संपत्ति केवल एक प्रतिशत कारपोरेट घरानों के पास इकठ्ठा हुई है और बाकी आबादी को जीने के लिये कठोर संघर्ष करना पड़ रहा है। इससे लोगों में आक्रोश पैदा हुआ है। आनेवाले समय में, दुनिया में कारपोरेट घरानों के विरुद्ध जनता के बीच संघर्ष अटल है।
जबतक लूट की व्यवस्था जारी है तबतक प्रेम और करुणा संपूर्ण परिवर्तन के लिए केवल इंतजार नही कर सकती। उसे भूखों को खाना देने की चुनौती स्वीकार करनी पड़ती है। शोषणकारी व्यवस्था का परिणाम ही गरीबी है। इसलिए जब तक शोषणकारी व्यवस्था समाप्त नही होती, तब तक अमीरों के पास इकठ्ठा हुई लूट की संपत्ति को गरीबों तक पहुंचाने के रास्ते ढूंढने ही होंगे। न्याय भीख नही है बल्कि शोषित समाज का हक है, जो शोषणकारी व्यवस्था ने उनसे छीना है।
आज ‘न्याय’ संभव है क्योंकि कारपोरेट घरानों को बार - बार यह चेतावनी मिल रही है कि अगर वे लूट की संपत्ति का थोडा हिस्सा लोगों को नही लौटायेंगे, तो उन्हे बढते आक्रोश का सामना करना पड़ सकता है । और तब उनके लिये मामला आसान नहीं होगा। इस डर से वे खुद भी संपत्ति का थोडा हिस्सा बांटकर लोगों का आक्रोश कम करना चाहते हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने बुद्धिजीवीयों के मस्तिष्क की जगह लेना शुरु किया, तब से उनका डर और बढ़ा है।
एक तरफ प्रेम, करूणा और दूसरी तरफ कारपोरेट घरानों में पैदा डर ने यूनिवर्सल बेसिक इन्कम गारंटी योजना को जन्म दिया है, जो हर व्यक्ति को जीने के लिए एक सुनिश्चित आय की गारंटी प्रदान करती है। ‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना) उसी का सुधारा हुए रुप है। एक न्यूनतम आय सुनिश्चित कर, उसे प्रदान करने का काम ‘न्याय’ करेगा। देश में आर्थिक विषमता के शिकार किसान और बरोजगारों के बढते आक्रोश ने, खासकर बड़े पैमाने पर हो रही किसानों की आत्महत्याओं ने सत्ता – संचालकों को ‘न्याय’ के लिए मजबूर किया है।
‘मनरेगा’ योजना के पीछे भी यही विचार रहा है। आधुनिक विकास नीति और यंत्रों के अत्याधिक उपयोग के कारण जब हाथों से काम छीना गया, तब ग्रामीण बेरोजगार युवाओं में बढ़ते आक्रोश को कम करने के लिए मनरेगा का जन्म हुआ। जो काम के बदले मजदूरी की गारंटी देती है। वैसे ही, एक विषमता बढ़ाने वाली व्यवस्था के चलते गरीबी, बेरोजगारी के शिकार हुए समाज को राहत देनेवाली नई योजना ‘न्याय’ है। ‘न्याय’ भारत की संवैधानिक जिम्मेदारी है।
‘न्याय’ के लिये पैसा कहां से आयेगा? यह अमीरों के हितैषी लोगों द्वारा उठाया गया सवाल है। ‘न्याय’ से मध्यमवर्ग पर टैक्स बढने की आशंका एक झूठा प्रचार है। भारत सरकार और राज्य सरकारों का एकत्रित सालाना बजट 55-60 लाख करोड़ रुपयों का है। प्राथमिक अनुमान के अनुसार, ‘न्याय’ के लिये हरसाल 3-4 लाख करोड़ की राशि लगेगी। इसे आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
भारत में अमीर कारपोरेट घरानों पर बहुत कम इंकम टैक्स लगाया जाता है। कारपोरेट कंपनियों को हर साल 4-5 लाख करोड रुपये टैक्स माफ किया जाता है। कालेधन को खेती की आय दिखाकर हरसाल लाखों करोड की टैक्स चोरी की जाती है। सीएसआर फंड की 2 प्रतिशत राशि 50 हजार करोड रुपये है। एक प्रतिशत अमीरों पर थोडा टैक्स बढाने या कालेधनवालों को टैक्स के दायरे में लाने से इतनी बडी राशी प्राप्त होगी कि उससे देश में सभी को न्याय देना संभव है।
संपूर्ण न्याय तभी संभव है, जब देश कारपोरेटी गुलामी से मुक्त होगा। हमारी आर्थिक योजना ऐसी होनी चाहिए जिसमें हर हाथ में काम हो और हर काम करनेवालों को न्यूनतम आवश्यकता पूर्ति के लिए जरुरी आमदनी प्राप्त हो। न्याय को उसी दिशा में एक कदम माना जाना चाहिये।
महात्मा गांधी ने कहा था (1937) “.. इस गरीब देश में भी कुछ नये कर लगाने की गुंजाइश है। संपत्ति पर अभी काफी कर नही लगा है। संसारके अन्य देशों में जो कुछ भी हो, यहां तो व्यक्तियों के पास अत्यधिक संपत्ति का होना भारत की मानवता के प्रति एक अपराध ही समझा जाना चाहिये। इसलिए संपत्ति की एक निश्चित मर्यादा के बाद जितना भी कर उसपर लगाया जाये, थोडा ही होगा। जहां तक मुझे पता है, इंग्लड में व्यक्ति की आय एक निश्चित राशि तक पहुंच जाने के बाद उससे आय का 70 प्रतिशत तक कर लिया जाता है। कोई वजह नहीं कि भारत में हम इससे भी अधिक कर क्यों न लगाये।”
ट्रस्टीशिप के मसौदे में वह कहते है “जिस तरह उचित न्यूनतम जीवन वेतन स्थिर करने की बात कही गई है, ठीक उसी तरह यह भी तय कर दिया जाना चाहिये कि वास्तव में किसी भी व्यक्ति की ज्यादा से ज्यादा कितनी आमदनी हो। न्यूनतम और अधिकतम आमदनीयों के बीच का फर्क उचित, न्यायपूर्ण और समय समय पर इस प्रकार बदलता रहनेवाला होना चाहिए कि उसका झुकाव इस फर्क को मिटाने की तरफ हो।”