चुनाव बॉन्ड योजना : चुनावी चंदे का गोरखधंधा?
सर्वोच्च न्यायालय से चुनाव बॉन्ड योजना पर अविलम्ब रोक लगाने की गुहार
‘चुनाव बॉन्ड योजना’ पर रोक लगाने की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के लिए आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय तैयार हो गया है। हाल ही में प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय पीठ ने इन याचिकाओं पर विचार करने को अपनी सहमति प्रदान कर दी।
चुनाव सुधार पर काम करने वाले गैर - सरकारी संगठन ‘एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स, ‘कॉमन कॉज’ और सीपीआई (एम) समेत 10 याचिकाकर्ताओं ने अदालत में दाखिल अपनी याचिकाओं में राजनैतिक दलों को मिलने वाले चंदे संबंधित कानूनों में मोदी सरकार द्वारा किये गये संशोधनों की संवैधानिकता को चुनौती दी है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि चुनाव बॉन्ड योजना एक अस्पष्ट फंडिग व्यवस्था है, जो किसी भी प्राधिकारी द्वारा नियंत्रित नहीं है।
चर्चा है कि आम चुनावों से पहले चुनाव बॉन्ड के जरिए बड़ी तादाद में गुमनाम चुनावी चंदा दिया गया है, जिसमें हजारों करोड़ के काले धन का भुगतान किया गया है। याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका में सबसे गंभीर इल्जाम यह लगाया है कि चुनाव बॉन्ड के जरिए जितने पैसों का भुगतान हुआ है, उसमें से 90 फीसदी अकेले सत्तारूढ़ पार्टी को मिला है। सरकार ने ‘कंपनी अधिनियम, 2013’ में जो संशोधन किया है, उससे राज्य के नीति निर्धारण में निजी कारपोरेटों के हितों को तरजीह मिली है। सरकार ने चुनाव फंडिग की जो व्यवस्था की है, वह सत्ताधारी दल के पक्ष में है। याचिकाकर्ताओं ने सरकार की ‘चुनाव बॉन्ड योजना’ पर जो भी इल्जाम लगाए हैं, वे बेहद संगीन हैं। सरकार को इनका जवाब अदालत और जनता की अदालत, दोनों में देना होगा।
चुनाव बॉन्ड योजना के विरोधियों का कहना है कि एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने शासनकाल में काले धन पर रोक लगाने की बातें करते नहीं थकते, वहीँ उनकी सरकार ने चुनाव बॉन्ड के तौर पर एक ऐसी योजना पेश की है जिसमें देश-विदेश के बड़े पूंजीपतियों का काला धन बड़े पैमाने पर सफेद हो रहा है। वित्त वर्ष 2017-18 के बजट के दौरान केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने चुनावी बॉन्ड योजना शुरू करने की घोषणा की थी। मोदी सरकार ने आगे चलकर ‘वित्त अधिनियम, 2017’ के माध्यम से ‘आयकर अधिनियम, 1961’, ‘कंपनी एक्ट, 2013’, ‘आरबीआई अधिनियम’ और ‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951’ में कई संशोधन करते हुए, साल 2018 में ‘चुनाव बान्ड योजना’ अधिसूचित कर दी। ‘जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951’ की धारा 29ए के तहत ऐसे राजनीतिक दल जिन्हें पिछले आम चुनाव या राज्य के विधानसभा चुनाव में एक फीसदी या उससे ज्यादा मत मिले हैं, चुनाव बॉन्ड प्राप्त करने के योग्य होते हैं। चुनाव बॉन्ड के अंतर्गत कोई भी दानदाता एसबीआई बैंक की निर्धारित शाखाओं से एक हजार से लेकर एक करोड़ रूपए के गुणांक के बॉन्ड खरीद सकता है। जब दानदाता इन्हें खरीदेगा, तो उसकी बैलेंस शीट में इसका जिक्र होगा। दानदाता को मालूम होगा कि उसने किस दल को पैसा दिया। लेकिन यह नहीं मालूम चलेगा कि पार्टी को किसने पैसा दिया। यानी सरकार ने ऐसी व्यवस्था बना ली कि सत्तारूढ़ दल को गुप्त तौर पर चंदा भी मिल जाए और किसी को यह मालूम भी न चले कि यह चंदा उसे किसने दिया है।
चुनाव बॉन्ड योजना के बारे में सरकार का कहना है कि चुनाव चंदे की स्वच्छता व पारदर्शिता के लिए उसने यह अभियान शुरू किया है। इस अभियान से नकद व गुप्त चंदे का चलन रूका है। चुनाव बॉन्ड लाने से राजनीतिक दलों को मिलने वाले काले धन पर लगाम लगी है। जबकि विरोधियों के अनुसार हकीकत कुछ और है। विरोधियों का दावा है कि चुनावी बॉन्ड से पारदर्शिता बढ़ने के बजाय कम हुई है। चुनावी बॉन्ड ने देश में भ्रष्टाचार को और बढ़ावा दिया है। यह पहल राजनीतिक भ्रष्टाचार को वैध बनाने का तरीका भर है। पारदर्शिता लाने का सरकार का दावा बिल्कुल बेबुनियाद है। सरकार स्टेट बैंक से आसानी से मालूम कर सकती है कि किस व्यक्ति या संस्थान ने चुनावी बॉन्ड खरीदे तथा किस राजनीतिक दल ने उनको भुनवाया। इसका नतीजा यह होगा कि कोई भी व्यक्ति या निगमित संस्था विपक्षी दलों को धन नहीं दे पाएगा। उन्हें यह डर रहेगा कि यदि उन्होंने चंदा विपक्षी पार्टियों को दिया, तो उनके व्यवसाय को निशाना बनाया जाएगा। कोई सियासी पार्टी जब चंदे के ब्यौरों को अपनी वेबसाइट पर डालेगी, तो सरकार चंदा देने वालों के पीछे पड़ जाएगी। उसके पीछे सीबीआई, ईडी और आयकर विभाग लगा दिया जाएगा। उन्हें तरह-तरह से परेशान किया जाएगा। चुनाव बॉन्ड योजना की सारी प्रक्रिया केवल यह सुनिश्चित करने के लिए है कि चंदा सिर्फ सत्तारूढ़ दल के पास ही जाए। यह महज इत्तेफाक नहीं है कि अभी तक चुनाव बॉन्ड से ज्यादातर चंदा सिर्फ सत्तारूढ़ दल को ही मिला है।
सच बात तो यह है कि चुनाव बॉन्ड योजना को लेकर, खुद केन्द्रीय चुनाव आयोग भी इसके हक में नहीं था। ‘वित्त अधिनियम, 2017’ पारित होने के तुरंत बाद ही आयोग ने अदालत में अपनी चिंताए जताते हुए सरकार से कहा था कि इस योजना से राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता पर गंभीर और नकारात्मक असर पड़ेगा। किसी राजनीतिक दल को इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से मिलने वाला कोई भी चंदा ‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951’ की धारा 29सी के तहत निर्धारित योगदान रिपोर्ट के तहत रिपोर्ट करने के दायरे से बाहर कर दिया गया है। जबकि ‘जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951’ राजनीतिक दलों को सरकारी कंपनियों और विदेशी स्त्रोतों से चंदा लेने से रोकता है। कॉरपोरेट फंडिंग की सीमा को हटाने वाले ‘कंपनी अधिनियम’ में किए गए संशोधनों पर चुनाव आयोग ने चेतावनी दी थी कि इससे राजनीतिक दलों को चंदा देने के एकमात्र उद्देश्य के लिए कागजी कंपनियों (शेल कंपनी), जिनका कोई अन्य व्यवसाय नहीं होगा, के स्थापित होने की संभावना खुलेगी । अगर कंपनियों को ये छूट दे दी जाएगी कि उन्हें पार्टियों को दी जाने वाली चंदे के बारे में जानकारी नहीं देनी है, तो इससे पारदर्शिता पर काफी बुरा प्रभाव पड़ेगा।
यही नहीं, ‘विदेशी अंशदान नियमन अधिनियम’ (एफसीआरए) में संशोधन के केंद्र के फैसले पर चुनाव आयोग ने कहा था कि इससे भारत में राजनीतिक दलों को अनियंत्रित विदेशी फंडिंग की अनुमति मिलेगी और इससे भारतीय नीतियां विदेशी कंपनियों से प्रभावित हो सकती हैं। चुनाव आयोग के अलावा कानून मंत्रालय और खुद वित्त मंत्रालय के वित्तीय क्षेत्र सुधार और विधान मंडल ने चुनाव आयोग के विचारों से सहमति जताई थी कि नया कानून सही नहीं है और इसे वापस लिया जाना चाहिए। इसके बावजूद सरकार ने जनवरी, 2018 से ‘चुनाव बॉन्ड योजना’ को पूरे देश में लागू कर दिया। और इसका सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को ही मिला।
विपक्ष में रहने के दौरान भाजपा हमेशा चुनावी चंदे में स्वच्छता और पारदर्शिता की बड़ी-बड़ी बातें करती थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने इसकी बात करना ही छोड़ दी है। उलटे उसकी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार एक ऐसा चुनाव बॉन्ड योजना लेकर आई है, जिससे उसे चंदा लेने और चंदा देने वाले दोनों को ही खूब फायदा हुआ है। पिछले साल मार्च, 2018 तक खरीदे गए 220 करोड़ रुपये के चुनाव बॉन्ड में से 210 करोड़ रुपये भाजपा के पास गए हैं। वहीं लोकसभा चुनाव से पहले चुनाव बॉन्ड की बिक्री में 62 फीसदी का जोरदार उछाल आया है। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई एक जानकारी से मालूम हुआ है कि चुनाव बॉन्ड की बिक्री पिछले साल की तुलना में करीब 62 फीसदी बढ़ गई है। साल 2019 में भारतीय स्टेट बैंक ने 1,700 करोड़ रुपये से ज्यादा के चुनाव बॉन्ड बेचे हैं। इसमें एक हजार करोड़ रुपए अकेले भाजपा के खाते में गए हैं। हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से जब एक इंटरव्यू में यह सवाल पूछा गया कि चुनावी बॉन्ड का सबसे ज्यादा फायदा उन्हीं की पार्टी को क्यों पहुंचा, तो उन्होंने बड़ी ही ‘मासूमियत’ से जवाब दिया, ‘‘क्योंकि उनकी पार्टी कैश में चंदा नहीं लेती।’’ यानी चुनावी बॉन्ड सिर्फ उन्हीं की पार्टी को मुफीद है, दूसरी पार्टियों को नहीं !
जानकारों का मानना है कि चुनाव बॉन्ड योजना, संदिग्ध और पूरी तरह से अपारदर्शी योजना है। इस योजना की वजह से राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे की गोपनीयता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है। इससे कॉरपोरेट एवं राजनीतिक दलों के बीच सांठगांठ और बढ़ गई है। जब बॉन्ड पर दानदाता का नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता, तो फिर बॉन्ड का मकसद क्या है? इस योजना से देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार बढ़ा है। हालत यह है कि चुनाव बॉन्ड, राजनीतिक चंदे के नाम पर काले धन को सफेद धन में तब्दील करने का माध्यम बनकर रह गया है। कंपनियों के राजनीतिक चंदे की अधिकतम सीमा को खत्म करने से राजनीतिक दलों को चंदा देने के नाम पर मुखौटा कंपनियों के गठन को बढ़ावा मिला है। चुनाव बॉन्ड योजना यदि आगे भी जारी रही, तो इससे देश की अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र दोनों के लिए खतरा पैदा हो सकता है।
विपक्षी पार्टियां इस योजना का यदि विरोध कर रही हैं, तो इसकी वजह भी है। संसद में भी उन्होंने यह मामला उठाया था। इस बारे में सरकार द्वारा प्रस्ताव पेश किए जाने पर इन पार्टियों ने इसमें संशोधन का अनुरोध किया था। लेकिन सरकार ने लोकसभा में अपने बहुमत के सहारे राज्य सभा की सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया। अब आखिरी उम्मीद न्यायपालिका से है। चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता और चुनावी चंदे के गोरखधंधे पर लगाम लगाने के लिए जरूरी है कि अदालत, ‘चुनाव बॉन्ड योजना’ पर अविलम्ब रोक लगाए।