हाल ही में ‘लाभ का पद’ मामले में आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों को दिल्ली हाई कोर्ट से बड़ी राहत मिली। सुनवाई के बाद अदालत ने कहा कि चुनाव आयोग को आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों को अयोग्य ठहराने से पहले उन्हें अपनी बात कहने का मौका देना चाहिए था। इस मामले में चुनाव आयोग ने मौखिक सुनवाई के नियमों का भी खयाल नहीं रखा। जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस चंद्रशेखर की पीठ ने चुनाव आयोग की सिफारिश को खारिज करते हुए साफतौर पर कहा कि आयोग की ओर से (राष्ट्रपति को) 19 जनवरी 2018 को दी गई राय नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन नहीं करने की वजह से कानूनन गलत और दोषपूर्ण है।

पीठ ने अपने 79 पन्नों के आदेश में कहा कि मौखिक सुनवाई और मुद्दे के गुण-दोष के आधार पर दलीलों को रखने का अवसर नहीं देकर नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन नहीं किया गया। जाहिर है कि अदालत के इस फैसले के बाद आम आदमी पार्टी के विधायक फिर से बहाल हो गए हैं और वे बिना किसी रुकावट के विधानसभा कार्यवाही में हिस्सा ले सकते हैं। वे वह काम कर सकते हैं, जिसके लिए दिल्ली की जनता ने उन्हें इस पद के लिए चुना था।

गौरतलब है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी के 21 विधायकों को मार्च 2015 में संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त किया था। इन संसदीय सचिवों को घर, गाड़ी और दफ्तर जैसी सुविधाएं मिली हुईं थीं। इस मामले को एक सामाजिक कार्यकर्ता चुनाव आयोग ले गया और उसने 'आप' सरकार पर इल्जाम लगाया कि विधायक रहते हुए सरकार ने इन्हें लाभ का पद दिया है। चुनाव आयोग ने 19 जनवरी 2018 को संसदीय सचिव के पद को ‘लाभ का पद’ करार देते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से इन विधायकों की सदस्यता को रद्द करने की सिफारिश की।

चुनाव आयोग की इस बारे में दलील थी कि ये विधायक 13 मार्च, 2015 से 8 सितंबर, 2016 के बीच ‘लाभ के पद’ के मामले में अयोग्य घोषित किए जाने चाहिए। राष्ट्रपति की ओर से इस सिफारिश को मंजूरी मिलने के बाद केंद्र सरकार ने इस बारे में एक अधिसूचना जारी कर इन विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया। विधायक इस फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट से गुहार लगाई कि चुनाव आयोग ने उनके खिलाफ कार्यवाही करते वक्त उनका पक्ष नहीं सुना और उसका यह फैसला एकतरफा है। लिहाजा केंद्र की उन्हें अयोग्य घोषित करने वाली अधिसूचना रद्द की जाए।

बहरहाल, अदालत में जब सुनवाई शुरू हुई तो चुनाव आयोग को अदालत के कड़े सवालों से गुजरना पड़ा। अदालत ने आयोग से पूछा कि यह फैसला किन तथ्यों के आधार पर लिया गया। सुनवाई के दौरान ऐसी कई बातें सामने आईं, जो इस मामले में चुनाव आयोग की भूमिका को संदेहास्पद बताती हैं। आयोग अदालत को यह सूचित करने में नाकाम रहा कि ओपी रावत (तत्कालीन चुनाव आयुक्त, फिलहाल मुख्य चुनाव आयुक्त) ने खुद को इस मामले से अलग करने के बाद दोबारा इस कार्यवाही में हिस्सा लेने की मंशा जताई थी। साथ ही सुनील अरोड़ा (चुनाव आयुक्त) ने तो इस कार्यवाही में हिस्सा ही नहीं लिया और उनके सामने कोई सुनवाई नहीं हुई।

जाहिर है कि जब तत्कालीन चुनाव आयुक्त एके जोती और मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने खुद को इस मामले की सुनवाई से अलग कर लिया था, तो वे कब इस मामले की सुनवाई में शामिल हुए, इसकी कोई जानकारी नहीं। जबकि विधायकों को अयोग्य ठहराने वाले फैसले पर उनके दस्तखत हैं। दूसरी अहम बात यह कि चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा (जो 1 सितंबर 2017 में ही चुनाव आयुक्त के पद पर आसीन हुए) ने इस कार्यवाही में जब हिस्सा ही नहीं लिया और उनके सामने कोई सुनवाई ही नहीं हुई तो राष्ट्रपति को भेजी सिफारिश में उनके दस्तखत कैसे हैं?

इन्हीं सब बातों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने के बाद दिल्ली हाई कोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा कि चुनाव आयोग के इस फैसले में कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। लिहाजा अदालत ने आयोग को आदेश दिया कि वह इस मामले को दोबारा सुने और तय करे कि इस मामले के तथ्यात्मक स्थिति क्या है, ताकि यह तय हो सके कि याचिकाकर्ता (आप विधायक) संसदीय सचिव नियुक्त होने के चलते अयोग्य घोषित होने लायक हैं या नहीं। अदालत ने यह भी कहा कि इस दौरान वह पिछले किसी आदेश या टिप्पणी से प्रभावित नहीं हों।

‘लाभ के पद’ का मतलब उस पद से है, जिस पर रहते हुए कोई व्यक्ति सरकार की ओर से किसी भी तरह की सुविधा ले रहा हो। संविधान का अनुच्छेद 102 (1) (ए) स्पष्ट करता है कि सांसद या विधायक ऐसा कोई दूसरा पद नहीं ले सकता, जिसमें अलग से वेतन, भत्ते या फिर अन्य फायदे मिल रहे हों। इसके अलावा अनुच्छेद 191 (1) (ए) और जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 9 (ए) भी कमोबेश यही बात कहती है कि अगर कोई विधायक किसी लाभ के पद पर पाया जाता है, तो विधानसभा में उसकी सदस्यता अयोग्य करार दी जा सकती है।

संविधान में ये धाराएं रखने का मकसद सिर्फ इतना था कि विधानसभा को किसी भी तरह के सरकारी दबाव से मुक्त रखा जाए, क्योंकि अगर लाभ के पदों पर नियुक्त व्यक्ति विधानसभा का भी सदस्य होगा, तो इससे प्रभाव डालने की कोशिश हो सकती है। बावजूद इसके देश में ऐसे कई राज्य हैं, जहां बहुत से विधायक ‘लाभ के पद’ पर विराजमान हैं। खासतौर से भाजपा शासित राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और छत्तीसगढ़ में कई विधायक सचिव के पद पर कार्य कर रहे हैं और इनका विवाद भी चुनाव आयोग और अदालत के पास विचाराधीन है। लेकिन चुनाव आयोग ने पहले इन शिकायतों पर गौर करने की जरूरत नहीं समझी। इसके बजाय ‘आप’ विधायकों पर कार्रवाई करना दोहरे मापदंड के अलावा और क्या हो सकता है?

पूरे मामले पर गौर करें तो दिल्ली के चुने हुए प्रतिनिधियों को गलत तरीके से बर्खास्त करके एक तरह से संवैधानिक प्रक्रियाओं और परम्पराओं का पूरी तरह से मजाक उड़ाया गया। चुनाव आयुक्त एके जोती रिटायर होने से सिर्फ एक दिन पहले यह विवादास्पद फैसला दे गए, जिस पर राष्ट्रपति ने भी तुरंत हस्ताक्षर कर दिए और केन्द्र सरकार ने रविवार के दिन अधिसूचना जारी कर दी।

इस फैसले से यह भी पता चलता है कि मोदी-राज में संवैधानिक प्राधिकारियों पर किस तरह का दवाब काम कर रहा है। अपने मनमाफिक फैसले के लिए मोदी सरकार को संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग करने से भी कोई गुरेज नहीं है। सीबीआई, आरबीआई और राज्यपाल से लेकर चुनाव आयोग तक देश की सभी प्रमुख संवैधानिक संस्थाएं आज केन्द्र सरकार के इशारे पर काम कर रही हैं। कहने को ये स्वायत्त संस्थाएं हैं, लेकिन उनकी हालिया कार्यप्रणाली और निर्णयों को देखने से ऐसा लगता है कि ये संस्थाएं सरकार के छिपे हुए एजेंडे पर ही कार्य कर रही हैं।

यह अब छिपा तथ्य नहीं है कि उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने और चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त करने के लिए मोदी सरकार ने जिस तरह से इन राज्यों में राज्यपालों का इस्तेमाल किया। यह बात अलग है कि बाद में अदालत में सरकार को मुंह की खानी पड़ी।

दरअसल, चुनाव आयोग ने ‘लाभ का पद’ मामले में जिन नियमों के तहत ‘आप’ विधायकों पर कार्रवाई की, उससे संबंधित नियम ही स्पष्ट नहीं हैं। ‘लाभ का पद’ क्या हो, कानून में इसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं मिलती। जब कोई विधायक, मंत्री या किसी आयोग का अध्यक्ष बनने पर ‘लाभ का पद’ के दायरे में नहीं आता, तो संसदीय सचिव बनने पर वह कैसे इस दायरे में आ जाता है। अब वक्त आ गया है कि सरकार ‘लाभ का पद’ से संबंधित उन कानूनों में संशोधन के लिए आगे आए, जो आए दिन देश में विवाद का विषय बनते रहते हैं।