मासिक धर्म पर होनी चाहिए बात
मासिक धर्म पर होनी चाहिए बात
समाज में मासिक धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दों पर कभी भी खुल कर बातचीत नहीं होती है। घर—परिवार और स्कूलों में भी बच्चों को इन मुद्दों के बारे में कभी भी खुलकर कुछ नहीं बताया जाता है। मान लीजिये, एक परिवार में अगर चार सदस्य हैं, दो पुरूष और दो महिला तो मासिक धर्म की बात महिला को तो मालूम हो भी जाएगी लेकिन एक छत के नीचे रहने के बावजूद पुरूष को शायद यह बात पता ना हो। गार्जियन टाइप के पुरूष को अगर यह बात चोरी—छिपे या खुसुर—फुसुर के जरिए मालूम भी हो जाए तो यकीन मानिये घर के लड़कों को यह बात कानों—कान खबर नहीं होगी।
ऐसे में क्या हम बडे़ हो रहे इन लड़कों को समाज की महिलाओं के प्रति गैर—जिम्मेदार और असंवदेनशील नहीं बना रहे हैं? जब तक आधी आबादी के प्रति पुरूष समाज संवेदनशील नहीं होगा तब तक समतामूलक समाज का निर्माण कैसे संभव हो सकेगा।
घर में लड़कों को यह पता ही नहीं होता है कि मासिक धर्म के कारण उसकी बहन, मां, भाभी या चाची किस तकलीफ से गुजरती हैं। ऐसे लड़कों से समाज की महिलाओं के प्रति नजरिया के बारे में तो दूर, उसकी अपनी पत्नी के प्रति भी कोई अच्छा नजरिया विकसित नहीं हो सकेगा। वह जब बड़ा होगा तो मासिक धर्म के दौरान तकलीफ से गुजर रही पत्नी पर भी रौब जमाएगा और घर के कामकाज में हाथ बंटाने के बजाय उससे पहले की तरह ही सारा कामकाज कराएगा।
समाज में इस विषय पर जिस तरह से विमर्श होना चाहिए, वो तो दूर इस विषय पर बोलने पर भी कड़ी पाबंदी है। जब कभी भी हम लोग पहली बार किसी दौर से गुजरते हैं तो हमारे मनोमस्तिष्क में एक हलचल, उधेड़बुन होती है। पहली बार मासिक धर्म आने के दौरान शायद लड़कियों की मन: स्थिति भी कुछ ऐसी ही रहती होगी। लेकिन वह इस विषय पर खुल कर नहीं बोल सकती क्योंकि बोलने पर उसके जीवन की सबसे चहेती शख्स यानि उसकी मम्मी ही उसे बोलने से रोकेगी और वह सहमी रहती है। बल्कि उपर से उसे डराया जाता है जैसे उसने कुछ बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है।
आज भी देश में कई ऐसे परिवार है जहां पर लड़कियों, महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान बहुत सारे काम करने पर पाबंदी है। मसलन वह पूजा—पाठ नहीं कर सकती, वह मंदिर नहीं जा सकती, आचार नहीं छू सकती, रसोई घर नहीं जा सकती। उसके नहाने, बाल धोने और कपड़े सुखाने जैसे विषयों पर भी कई तरह की पाबंदी और रोक-टोक रहती है।
यहां अब सोचने वाली बात यह है कि जब हमारे समाज में महिलाओं—लडकियों का आत्मबल बढ़ाये जाने की जरूरत है तब हम उसे दबा रहे हैं और धकिया रहे हैं। आखिर हम कैसे समाज की परिकल्पना कर रहे हैं और समाज का निर्माण रहे हैं। अगर हम किसी लड़की का मनोबल कमजोर करते हैं तो यह समाज का मनोबल कमजोर करने जैसा है। तात्कालिक तौर पर तो भले ही हम पुरूष समाज को इसका लाभ नजर आता हो लेकिन सामाजिक तौर पर इसका परिणाम बुरा होता है। लड़की को अगर मासिक धर्म आता है तो यह उसके एक शारीरिक संरचना के कारण होता है ऐसे में उसे हीन नजर से देखना और उसे हीनता का बोध कराना कही से भी जायज नहीं है।
मासिक धर्म के दौरान पेट के निचले हिस्से में ऐंठनभरी पीड़ा होती है। इस दौरान महिलाओें को रह—रह कर तेज दर्द या हल्का—हल्का चुभने वाला दर्द हो सकता है। इससे पीठ में भी दर्द हो सकता है। कई बार मासिक धर्म शुरू होने से दिन पहले ही यह दर्द शुरू हो जाता है। आमतौर पर मासिक धर्म में खून आना कम होते ही सामान्यतः दर्द खत्म हो जाता है। आमतौर पर यह दर्द तीन से चार दिन रहता है। एक महिला जो परिवार के कामकाज का सारा बोझ अपने कंधों पर उठाए हुये है और वह दर्द से भी पीड़ित है लेकिन वह मुंह से कुछ बोल नहीं पाती। ऐसे में उसकी स्थिति की सिर्फ परिकल्पना ही की जा सकती है।
अगर उसका बेटा इस तकलीफ में अपनी मां के दर्द—दुख को समझता तो शायद उसकी मानवीय संवेदना जाग जाती और वह घरेलू कामकाज में मां का हाथ बंटा देता। लेकिन लड़का ऐसा नहीं कर सकता है क्योंकि उसे मालूम ही नहीं है कि उसकी मां किस तकलीफ से गुजर रही है। ऐसे में अगर लड़के को इस बारे में पता रहे तो कितना अच्छा होगा। जब वह बड़ा होगा तो इन बातों को समझ सकेगा और एक परिपक्व इंसान के तौर पर विकसित होगा और ऐसे में वह एक अच्छा पति और अच्छा बॉस साबित हो सकता है।
देश के कई दफ्तरों में भी ऐसा कई बार होता होगा जब इन बातों से असंवदेनशील बॉस अपने महिला कर्मचारियों की तकलीफ को ना समझते हुये उसे ऐसी स्थितियों में छुट्टी मांगने पर ना दें या उस पर पहले की तरह ही काम का बोझ बनाए रखे। अगर पुरूष बॉस घर में इन बातों की सीख लेकर बड़ा हुआ होता तो शायद आज दफ्तर तक पहुंचते—पहुंचते ऐसी नौबत ही नहीं आयी होती।
हाल में मासिक धर्म पर आधारित एक फिल्म आने वाली है पैडमैन। इस फिल्म के ट्रेलर के एक दृश्य में दिखाया जाता है कि अपनी बहन को सैनिटरी नैपकिन्स देने पर उसकी बहन कहती है कि बहनों को ऐसी चीज देता है क्या? इससे यह बात और पुख्ता होती है कि समाज में इस विषय को लेकर कैसी धारणा है।
समाज में मासिक धर्म को लेकर जो एक विशेष आग्रह और पूर्वाग्रह बना हुआ है वह खतरनाक है। दिल्ली जैसे शहर में भी देखा जाता है कि मेडिकल दुकान पर लड़कियां, महिलाएं चुपके से दुकानदार से सैनिटरी नैपकिन्स की मांग करते हैं और दुकानदार लिफाफे या काले रंग की पॉलीथिन में ये सैनिटरी नैपकिन्स लपेट कर खरीददार को दे देता है। सैनिटरी नैपकिन्स जैसी सुरक्षा से जुडी वस्तुओं को खरीदने में इतना संकोच और लिहाज क्यों होना चाहिए यह समझ से परे की बात है।
अगर पुरूष प्रधान समाज में पुरूषों को यह मालूम होगा कि मासिक धर्म में आप घर पर क्या उपचार कर सकते हैं, पीड़ादायक मासिक धर्म के लिए डाक्टर से कब परामर्श लेना चाहिए, महवारी से पहले की स्थिति के क्या लक्षण हैं तो यकीन मानिए ऐसे पुरूष परिवार के लिए सहायक साबित हो सकते हैं और होते भी हैं।
गांव में तो आज भी महिलाएं मासिक धर्म के दौरान पुराने कपडों का इस्तेमाल करती हैं और इससे संक्रमण और यौन संबंधी कई बीमारियों से ग्रस्त और परेशान होती रहती हैं।
कहा जा रहा है ‘पैडमैन’ फिल्म अरुणाचलम मुरुगनथम की वास्तविक जीवन की कहानी से प्रेरित है। उन्होंने कम लागत वाले सैनिटरी नैपकिन्स बनाने की मशीन का आविष्कार किया था। मुरुगनानथम ने एक ऐसी मशीन का निर्माण किया था जो सैनिटरी नैपकिन्स सस्ते दाम में उत्पादित करती थी। ऐसी भी कहानी है कि सैनिटरी नैपकिन्स बनाने वाले मुरुगनानथम को उनकी पत्नी एक बार छोड़ कर चली गयी थी। ऐसा उन्होंने पति के काम से शर्म महसूस होने के कारण किया था। ऐसे समाज में जहां पर इस विषय पर चर्चा करने पर पाबंदी हो वहां पर अगर कोई मासिक धर्म को लेकर सैनिटरी नैपकिन्स बनाने जैसा काम करे तो वह परिवार शर्मसार महसूस करेगा ही।
लेकिन याद रखा जाना चाहिए कि मुरुगनानथम को बाद में पद्म सम्मान से नवाजा गया और यह पुरस्कार हमें इस विषय पर समाज में खुल कर बोलने और चर्चा करने की लाइसेंस देती है कि चुप्प मत रहो, ऐसे विषय पर खुल कर बोलो, चर्चा करो, शर्म मत करो। ऐसा करने से समाज संवेदनशील बनेगा और राष्ट्र का सर्वांगीण विकास संभव हो सकेगा।