उत्तर प्रदेश में बेटियों के खिलाफ धर्मस्थलों का यह इस्तेमाल!
उत्तर प्रदेश में बेटियों के खिलाफ धर्मस्थलों का यह इस्तेमाल!
आपने पढ़ा होगा, उत्तर प्रदेश के संभल जिले के रजपुरा गांव में गत सोमवार को पांच दुस्साहसी, निद्र्वंद्व और बेलगाम दरिन्दे दनदनाते हुए एक ऐसी महिला के घर में जा घुसे, जिसे अरसे से इज्जत खराब कर देने की धमकी देते आ रहे थे और जिसके द्वारा दर-दर फरियाद करने के बावजूद जिनका बाल भी बांका नहीं हुआ था। पहले तो वे उससे गैंगरेप कर इस बाबत किसी को भी बताने पर ‘और बुरे’ अंजाम की चेतावनी देकर बेखौफ वापस चले गये और जब तक वह खुद को संभालकर उनकी नृशंसता के प्रतिकार की ओर बढ़ती, फिर से लौट आये। बेरहमी से घसीटते हुए उसे पास के मन्दिर में ले गये और मध्यकाल के काले दिनों को मात देते हुए उसकी यज्ञशाला के हवनकुंड में जिन्दा जला दिया! फिर भी ये पंक्तियां लिखने तक उनमें से तीन पुलिस की पकड़ से बाहर हैं और प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार इस कांड की किंचित भी नैतिक शर्म महसूस करने के बजाय निहायत बेदिली का रवैया अपनाये हुए है।
उसकी इस बेदिली के बावजूद कहा नहीं जा सकता कि इस दरिन्दगी को लेकर उसकी शुभचिंतक केन्द्र सरकार या उसके प्रतिनिधि राज्यपाल राम नाईक का दिल तनिक भी दहलेगा या नहीं और वे, कर्मकांड के तौर पर ही सही, उसका थोड़ा बहुत भी संज्ञान लेंगे या नहीं। अभी तक तो न केन्द्र ने इस बाबत प्रदेश सरकार से कोई रिपोर्ट मांगी है और न ही राज्यपाल ने अपनी ओर से उसे भेजी है। और तो और, उन्होंने मुख्यमंत्री को कोई वैसी चेतावनीभरी चिट्ठी भी नहीं लिखी है, जैसी पिछली प्रदेश सरकार के मुखिया को कई बार छोटे-छोटे मामलों में और अकारण भी लिख दिया करते थे। गौरतलब है कि उनका यह निष्ठुर रवैया तब है, जब इस अघटनीय को कानून व्यवस्था का सामान्य मामला बताकर उसकी छुट्टी नहीं की जा सकती।
वहां दरिन्दों ने अपनी कारस्तानी से यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ की मुहिम चला रही देश और प्रदेश की सरकारें देश के सबसे बड़े प्रदेश की बेटियों को घर के बाहर कौन कहे, अपने घरों में भी सुरक्षित नहीं कर पाई हंै। हां, इस कांड का इससे भी चिंतनीय पहलू यह है कि वहशियों द्वारा बेटियों के सम्मान या जान से खेलने के लिए धर्मस्थलों व पूजास्थलों के इस्तेमाल का जो दुर्भाग्यपूर्ण सिलसिला इस साल के आरंभ में जम्मू कश्मीर के कठुआ से शुरू हुआ था और जिसने बेटियों व बलात्कारियों को भी साम्प्रदायिक आधार पर अपने व पराये में बांट डाला, वह सम्भल के रास्ते अब उत्तर प्रदेश तक आ पहुंचा है।
यकीनन, उसने इस सवाल की धार और तीखी कर दी है कि यह इस्तेमाल सबसे ज्यादा भाजपा के प्रभुत्व या सत्ता वाले राज्यों में ही देखने में क्यों आ रहा है? इसीलिए तो कि ऐसी नृशंसताओं का ठिकाना बनाकर धर्मस्थलों को नये सिरे से कलंकित करने वाले तत्व खुद को सबसे ज्यादा उसी के राज या समाज में सुरक्षित महसूस करते हैं।
क्या इससे जुड़े सवालों और साथ ही उनके जवाबों को देश-प्रदेश के वर्तमान सत्तातंत्र की इस सुविधा के मद्देनजर दरकिनार किया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में जंगल राज के खात्मे के वादे पर चुनकर आई भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार के सत्ता संभालते ही ‘गोदी’ मीडिया ने जंगल राज को खत्म हुआ मान लिया और अब जेलों तक के हत्याओं व अन्य अपराधों की केन्द्र बन जाने से उत्पन्न कोढ़ में खाज की स्थिति में भी सब हरा-हरा ही देखता और उसे जंगल राज कहने से परहेज करता है?
नारी सुरक्षा बल का क्या हुआ
यह सवाल तो लगातार जवाब की मांग कर रहा है कि सम्भल की उक्त महिला ने गैंगरेप के बाद अपनी जान पर भी खतरा देख ऐन वक्त पर मदद के लिए पुलिस को, उस हेल्पलाइन पर, जो महिलाओं की सुरक्षा के लिए ही बनाई गई है, फोन लगाया तो वह क्यों नहीं उठा? अगर यह अनसुनी ही बेटियों की नियति है, जो फिलहाल तो है ही, तो प्रदेश सरकार के बहुप्रचारित एंटीरोमियो स्क्वाड की क्या सार्थकता है, जिसका नाम अब उसने ‘नारी सुरक्षा बल’ कर दिया है। यों तो यह बल बेटियों की सुरक्षा के नाम पर सगे भाइयों तक के साथ उनका बाहर निकलना दूभर किये रहता है लेकिन किसी मुसीबत के वक्त उन्हें वाकई उसकी जरूरत महसूस होती है, तो वह आमतौर पर गैरहाजिर ही मिलता है।
जाहिर है कि प्रदेश सरकार का यह दावा पूरी तरह थोथा है कि उसने बेटियों की सुरक्षा के माकूल इंतजाम कर रखे हैं। तभी तो राज्य में रोज औसतन आठ महिलाओं से बलात्कार हो रहा और तीस का अपहरण कर लिया जा रहा है। प्रदेश सरकार इन हालात को बदलने के प्रति सचेष्ट होने के बजाय तथाकथित मुठभेड़ों में कथित अपराधियों को मार गिराने को लेकर अपनी पीठ ठोक रही है। लेकिन एक ओर वह इन मुठभेड़ों की सच्चाई को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक को आश्वस्त नहीं कर पा रही, दूसरी ओर यह भी नहीं बता रही कि इन अपराधियों के मारे जाने के बावजूद अपराधों का ग्राफ बढता क्यों जा रहा है? क्या इन दोनों के बीच कोई संगति है? अगर नहीं तो इस विसंगति का जिम्मेदार कौन है?
क्योंकर वस्तुस्थिति यह है कि प्रदेश में बेटियों पर गुंडों व मुस्टंडों के ही नहीं, पुलिसकर्मियों के दुस्साहस और कर्तव्यहीनता से भी बुरी बीत रही है? एक तो मनबढ़ गुंडे सार्वजनिक स्थलों पर भी उनका आखेट करने से बाज नहीं आते। दूसरे पुलिस, अगर वे हाई प्रोफाइल नहीं हैं, उनकी मदद का फर्ज तब तक नहीं निभाती, जब तक वह मजबूरी न बन जाये। यह भी कोई दबी-ढकी बात नहीं कि प्रदेश की पुलिस का अपना एक खास वर्गचरित्र है, जिससे वह किसी भी सरकार के दौर में निजात नहीं प्राप्त कर पाती. इस चरित्र के तहत वह दलित, वंचित, पिछड़े व कमजोर वर्ग की बेटियों से रेप या गैंगरेप की घटनाओं को उतनी भी तवज्जो नहीं देती, जितना किसी पीड़ित महिला के संभ्रांत पारिवारिक पृष्ठभूमि से होने पर उसकी ‘चोटी कट जाने’ को।
तीसरे, अब आम लोग भी बेटियों के पक्ष में दखल देने का साहस नहीं करते। इसलिए कि उन्हें यकीन नहीं रह गया है कि किसी गुंडे या मुस्टंडे के मुंह लगने या उसके अभीष्ट में बाधा डालने के बाद प्रदेश में उनका निस्तार हो सकता है।
राज्यपाल ने दिया है सौ में पचहत्तर अंक
प्रसंगवश, गत 28 मार्च को प्रदेश सरकार को संगठित अपराधों पर लगाम लगाने के लिए लाये गये महत्वाकांक्षी ‘यूपीकोका’ को विधानसभा के साथ विपक्ष के वर्चस्व वाले विधान परिषद में पारित कराने में कामयाबी मिली, तो राज्यपाल रामनाईक ने कानून व्यवस्था के मृद्दे पर उसको सौ में पिचहत्तर अंक देने का एलान किया था। यह भी कहा था कि पहले वे उसे पचास अंक ही देते थे। सवाल है कि अब संभल कांड के बाद वे उसे कितने अंक देंगेे? गणतंत्र दिवस पर कासगंज में हिंसा हुई तो उन्होंने उसे ‘प्रदेश के लिए कलंक’ बताया था। बेहतर हो कि अब इस कांड पर भी अपना मुंह खोलें। यह तो बतायें ही कि वह किन-किनके लिए कलंक है और उसे न रोक पाने वाली योगी सरकार से ऐसे कांडों की पुनरावृत्ति रोकने को भी कहें।
लेकिन अभी तो ऐसे कांडों से पीड़ित बेटियां किसी तरह ‘बच’ जा रहीं तो यह तक नहीं मान पा रहीं कि उन्हें किसी भी स्तर पर आत्मसम्मान बनाये रखने लायक इंसाफ मिल सकता है। इसलिए उनमें से कई आत्महत्या की हद तक निराश हो जा रही हैं। इसलिए कि संबंधित कानूनों के कड़े किए जाने के बावजूद बेटियों के कुसूरवारों को सबक सिखाना व सजा दिलाना मुश्किल बना हुआ है, क्योंकि कड़े कानूनों का पालन कराने वाली एजेंसियांे का रवैया भी बेटियों का पक्षधर नहीं है। जाहिर है कि इसके चलते बेटियों को सुरक्षा के नाम पर उसका भ्रम या कि छल ही हासिल हो रहा है, जो असुरक्षा से भी ज्यादा खतरनाक है। अफसोस कि सत्तातंत्र को इतना भी चेत नहीं है कि वह समझ सके कि बेटियों का उसमें टूटा या खत्म हुआ भरोसा जल्दी ही नये सामाजिक उद्वेलनों को जन्म दे सकता है। हां, हवनकुंडों में बेटियों का यह दाह बहुत से यज्ञों के ध्वंस का वायस बन सकता है।