अस्पतालों और डॉक्टरों को स्वंय ही निगरानी तंत्र विकसित करना चाहिए
अस्पतालों और डॉक्टरों को स्वंय ही निगरानी तंत्र विकसित करना चाहिए
आमतौर पर डॉक्टरों को जीवन देने वाला अविष्कार माना जाता है लेकिन हाल के दिनों में लापरवाही और रुपया बनाने की अंधी दौड़ के कारण ऐसा महसूस होता रहा है कि इस पेशे में काफी विकृति आ गयी है। स्वास्थ्य के मामले में थोड़ी बहुत चूक से ही आदमी को जान तक गंवानी पड़ जाती है और लापरवाही के ऐसे मामलों की खबरें आये दिन अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं।
ऐसा नहीं है कि ऐसी घटनाएं छोटे-मोटे अस्पताल और निजी नर्सिंग होम तक सीमित हैं। फिर जब लापरवाही के मामले की खबर देश के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित अस्पताल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से आये तो मन व्यथित हो जाता है। मानव स्मृतिलोप आम बात है। हम आम लोगों को भूलने की प्रवृत्ति होती है, लापरवाही की ऐसे मामलों को छोटी-मोटी घटना मान कर लोग भूल जाते हैं। हालांकि ऐसी घटना को बड़ी घटना माना जाना चाहिए और इसे नजरअंदाज कर नागरिकों के जीवन से खिलवाड़ की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।
गौरतलब है कि एम्स के एक वरिष्ठ डॉक्टर ने पेट दर्द से पीड़ित एक महिला को डायलिसिस के लिए की जाने वाली सर्जरी कर दी। हद तो तब हो गयी जब डॉक्टर को अपनी गलती का अहसास हुआ तो उसने इसे छिपाने के लिए दस्तावेजों से छेड़छाड़ तक कर दी।
हालांकि यह अलग बात है कि एम्स प्रशासन ने प्रारंभिक जांच में डॉक्टर को दोषी पाते हुये उसे सभी चिकित्सकीय कार्य से हटाने की सिफारिश की और साथ ही मामले की पूर्ण जांच के लिए एक डॉक्टर की अगुवाई में एक समिति गठित कर दी।
जब आदमी शरीर में होने वाली असहनीय पीड़ा से गुजर रहा होता है अमूमन तब वह डॉक्टर और अस्पताल के पास जाता है। मरीज डॉक्टर पर पूरा भरोसा करता है और उसे अपना शरीर सौंप कर एक बार फिर से पूर्ण निरोग बनाने की जिम्मेदारी सौंप देता है। इसके एवज में मरीज डॉक्टरों को मुंहमांगी फीस देता है लेकिन लापरवाही के कारण कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि मरीज की जान सांसत में पड़ जाती है। साधारण सी लगने वाली ऐसी घटनाएं आमतौर पर नजरअंदाज कर दी जाती हैं, लेकिन ऐसे मामलों को काफी गंभीरता से लिये जाने की जरूरत है।
कई बार देखा जाता है कि बीमारी कुछ है और इलाज किसी और चीज का कर दिया जाता है। ऑपरेशन कहीं करना है कर कहीं और दिया जाता है। मरीजों को दवाओं के ओवरडोज तक के कारण परेशान होते हुये देखा गया है। कई बार ऐसी खबरें भी सामने आती हैं जब मरीज के पेट में ऑपरेशन के दौरान कैंची और रूमाल जैसी सामग्री छोड़ दी जाती है। ऐसी घटनाएं लापरवाही का जीता जागता उदाहरण नहीं तो और क्या हैं।
पुराने धर्म शास्त्र और ग्रंथों से लेकर आज तक के पुस्तकों में कमोबेश वैद्य यानि डॉक्टरों को जीवनदाता के रूप में देखा गया है और उसे बहुत सम्माननीय बताया गया है। इसमें सेवा भाव को प्रमुख तत्व माना गया है।
वर्तमान युग में सेवा भाव को अगर दरकिनार भी कर दिया जाए और इसे गिव एंड टेक यानि लेन-देन पर आधारित कर दिया जाए तब भी अस्पतालों और डॉक्टरों का यह परम कर्तव्य बनता है कि वह अपने जिम्मेदारियों का ठीक तरीके से निर्वहन करें लेकिन वास्तव में ऐसा हो नहीं रहा है।
मानव जीवन बहुत अमूल्य है और इसे लापरवाही के कारण नष्ट नहीं किया जा सकता। लोग अपने परिजन को बचाने के लिए अपनी सारी संपत्ति तक खर्च कर देते हैं और काफी परेशानियों और मुसीबतों का सामना करते हैं और इसके बावजूद कोई अगर अपने रिश्तेदारों को खो दे या उसकी सेहत और ज्यादा खराब हो जाए तो यह बहुत दुखदायी और निंदनीय है।
मानवीय संवेदनाओं को अगर छोड़ भी दिया जाए तब भी बतौर फीस रुपया लेने के बावजूद डॉक्टर और अस्पताल मरीजों को वह सुविधा मुहैया नहीं कराते हैं जिसके वास्तव में वे हकदार होते हैं।
इस तरह से अगर देखा जाए तो प्रथम दृष्टता डॉक्टर और अस्पताल धोखाधड़ी के भी आरोपी हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि जिस सेवा के लिए वह रुपया ले रहे हैं वह सुविधा वह मुहैया नहीं करा रहा है और वह इस मामले में भी सजा के बराबर हकदार हैं।
एम्स के इस मामले में नर्सिंग रिपोर्ट के अनुसार, मरीज द्वारा पेट दर्द की बात बताने के बादजूद डॉक्टर ने उसकी आर्टीरियोवेनस फिस्टुला सर्जरी की जो किडनी की गंभीर बीमारी में हीमोडायलिसिस करने के लिए अधिक रक्त उपलब्ध कराने के लिए की जाती है। प्रारंभिक रिपोर्ट के मुताबिक मरीज की गलत सर्जरी की गई लेकिन इसे मरीज के रिकार्ड में दर्ज नहीं किया गया। हालांकि नर्सिंग रिपोर्ट बुक में इसका जिक्र है। जानकारी होने पर जब इस पूरे घटनाक्रम की जांच करायी गयी तो इसमें डॉक्टर को गलत सर्जरी करने सहित दस्तावेज के साथ छेड़छाड़ करने का दोषी पाया गया।
यह तो भला हो एम्स अस्पताल का जिसने ऐसी घटनाओं पर संज्ञान लिया और इस पर कार्रवाई की लेकिन क्या अन्य अस्पतालों में ऐसी सुविधाएं हैं और उन्होंने ऐसी कोई कार्रवाई की है जो मिसाल बन सके।
जवाब शायद नहीं में होगा। और अगर होगा भी तो शायद बहुत कम। आमतौर पर जब ऐसे मामले सामने आते हैं तो अस्पताल प्रशासन और डॉक्टर इसकी लीपापोती करने में लग जाते हैं। उनका नेटवर्क और ढांचा इतना मजबूत एवं सशक्त होता है जिसे तोड़ पाना आम लोगों के लिए मुश्किल भरा होता है। आदमी अपने परिजन को भी गंवाता है और रुपया भी खर्च करता है। कई बार तो ऐसी घटनाएं भी सामने आयी हैं जब अस्पताल रुपयों के लिए परिजनों को मरीज का शव सौंपने से भी इंकार कर देता है। ऐसी घटनाएं अमानवीय नहीं तो और क्या हैं?
जबकि होना यह चाहिए कि अस्पतालों और डॉक्टरों को खुद ऐसे मामलों की निगरानी के लिए एक तंत्र विकसित करना चाहिए। यह माना जा सकता है कि डॉक्टर भी इंसान होते हैं और उनसे भी मानवीय भूल हो सकती है लेकिन अगर ऐसे छोटे-मोटे मानवीय भूल को अगर दरकिनार भी कर दिया जाए तो मेडिकल पेशा पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों के मुताबिक लापरवाही से जुड़े ऐसे मामलों की तादाद बहुत ज्यादा है जिसकी रिपोर्ट बहुत कम होती है।
ऐसा लगता है कि डॉक्टरों और अस्पतालों ने लापरवाही से जुड़े ऐसे मामलों पर नजर रखने के लिए कोई तंत्र विकसित ही नहीं किया है और इस पर सीधे कार्रवाई की कोई बात भी सामने नहीं आती है। ऐसे में सरकार और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी संस्थानों का यह दायित्व बन जाता है कि वह लापरवाही से जुड़ी ऐसी घटनाओं पर निगरानी रखने के लिए एक तंत्र विकसित करे ताकि ऐसे मामलों की संख्या कम हो सके।
सरकार को ऐसे मामलों में कठोर कानून बनाकर इसे कड़ाई से लागू कर मिसाल पेश करनी चाहिए ताकि डॉक्टर और अस्पताल सर्तकता बरतें और लापरवाही से जुड़ा कोई मामला घटित ना हो।
इसके अलावा ऐसी घटनाओं से सीख लेने और आगे इसमें सुधार करने के लिए नागरिक समाज को भी इसके लिए सर्तक और जागरुक होना पड़ेगा और इसमें सहयोग देना पड़ेगा। इससे सरकार, चिकित्सा संगठनों और नागरिक समाज के सहयोग से निश्चित रूप से लापरवाही से जुड़े मामलों में कमी आएगी।
हालांकि ऐसे में नागरिकों को अस्पतालों में उत्पात मचाने और डॉक्टरों के साथ अभद्रता करने की इजाजत कतई नहीं दी जा सकती है।