शैलेन्द्र पर राजकमल प्रकाशन की एक किताब है , अंदर की आग। इसका सम्पादन रमा भारती ने किया है. उस किताब की समीक्षा के बहाने एक फौरी शोध से चौंका देने वाली कई बातें सामने आईं हैं। उनकी प्रामाणिक पुष्टि के लिए और अन्वेषण की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता है। इस किताब में शैलेन्द्र की सभी कवितायें संकलित हैं। किताब के अनुसार राज कपूर उन्हें भारत का पुश्किन कहते थे. फणीश्वरनाथ रेणु ने उन्हें " कविराज " कहा था। और 3 0 अगस्त 1 9 6 6 को उनके जन्मदिन पर भेजे शुभकामना सन्देश में तत्कालीन केंदीय मंत्री जगजीवन राम ने कहा था कि शैलेन्द्र , रविदास के बाद हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय ' हरिजन ' कवि है.

जो बातें 1 5 2 पृष्ठों की इस किताब में नहीं कही गयी है वह एक कड़वा सच है। उनमें से एक यह भी है कि शैलेन्द्र को बचपन के दिनों में होंकी खेलने नहीं दिया गया। सिर्फ इसलिए कि वह जन्मना दलित थे। बचपन में ही इस वंचना ने उनमें जाति- व्यवस्था ही नहीं , पूंजीवाद के खिलाफ भी मुखर प्रतिरोध की अभिव्यक्ति का बीजारोपण कर दिया था .

तभी तो उन्होंने वो गीत रचा जिसे कोई भी सहज गा , गुनगुना सकता है. क्रांतिकारी चेतना से रू-ब -रू युवा पूरे हिन्दुस्तान में समूह में ये गीत गाते हैं . नई दिल्ली में शोधपरक ज्ञान का गढ़ माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू ) में तो शायद ही कोई होगा जिसने यह गीत ना गाया या सुना हो. फिर भी बहुतों को नहीं पता कि यह गीत शैलेन्द्र रचित है. जेएनयू में उच्च शिक्षा प्राप्त कर स्वीडन जा बसीं स्वप्ना राय ने स्वीकार किया कि उन्होंने छात्र -जीवन में सैंकड़ों बार यह गीत सुना और खुद भी कई बार इसकी कुछेक लाइनें समूह में और एकल रूप से भी गायी थीं। पर उन्हें नहीं मालूम था कि इसे उनकी तरह मूलतः बिहार के शैलेन्द्र ने ही रचा। उन्होंने एक स्वाभाविक प्रश्न भी खड़ा कर दिया कि इतने लोकप्रिय गीत को किसी फिल्म में क्यों नहीं अपनाया जा सका ? वो गीत है :

"तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
तू जिंदा है ....

ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जायेंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन
कभी तो होगी इस चमन पे भी बहार की नज़र,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
तू जिंदा है...

हमारे कारवां को मंजिलों का इंतज़ार है,
ये आँधियों, ये बिजलियों की पीठ पर सवार है
तू आ कदम मिला के चल, चलेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है ...

ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,
टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,
मुसीबतों के सर कुचल चलेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर।
तू जिंदा है...

बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग ये,
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्कलाब ये,
गिरेंगे ज़ुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर.
तू जिंदा है..."


शैलेन्द्र ने यह गैर- फ़िल्मी गीत 1 9 5 0 में लिखा था. उनका आखरी फ़िल्मी गीत , " जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां " , अधूरा रह गया था जिसे 1 9 6 6 में उनके निधन के बाद उनके पुत्र शैली शैलेन्द्र ने राजकपूर के कहने पर फिल्म ' मेरा नाम जोकर ' के लिए पूरा किया था. शैलेन्द्र ने आत्महत्या नहीं की थी. उनका निधन क्लासिक फिल्म " तीसरी कसम " का निर्माण करने के बाद वित्तीय बोझ के कारण अवसाद से घिर जाने पर हुआ था. मीडिया में शैलेन्द्र के विद्रोही -जनकवि होने की बात कम ही होती है. बहुत कम लोगों को पता है कि भारत में मजदूर आन्दोलन का सबसे लोकप्रिय नारा ," हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है " , शैलेन्द्र ने ही बुलंद किया था.

शैलेन्द्र पर फौरी शोध के बारे में सुन जेएनयू से जुड़ी रहीं दिव्या पराशर ने कहा , " बचपन से ही यह गीत अपने पापा से सुनते आए है, गाते-गाते पापा की आवाज़ लरजने लगती थी, बहुत बाद मे गीत का मर्म समझ पाए। आज भी इस गीत को गुनगुनाने पर आवाज़ वैसे ही भर आती है। शैलेन्द् जी को नमन ". अध्यापनरत रूचिता सहाय ने कहा , " जेएनयू गान। कभी नहीं भूलता और ना ही जेएनयू लाइनर्स। हमारी बेटी जब छोटी थी, बिल्कुल 4 -5 महीने की , और नहीं सोती थी तो उसके पिताजी उसे गोद में ले बालकनी में लगातार टहलते थे. और, चूंकि वो गाते नहीं, यू विल नॉट बिलीव व्हाट ही यूस्ड टू चांट। ही वुड कन्स्टंटली कीप चांटिंग , ' मार्च ऑन , मार्च ऑन , कमरेड मार्च ऑन , एन्ड अदर चांट्स लाइक , " तू ज़िंदा है... । आई रियली फील ईंट वाज़ टू मच ऑफ़ जेएनयू फॉर द न्यू बोर्न।

शैलेन्द्र की पत्नी शकुंतला के अनुसार उन्हें भीषण गर्मी में रसोई में रोटियां बनाते देख शैली शैलेन्द्र ने अपने पिता से बाल -सुलभ प्रश्न किया , " हम रोटियों का पेड़ क्यों नहीं लगा लेते ? शैलेन्द्र ने तब एक गीत लिखा था फिल्म मुसाफिर (1957) के लिए, ‘मुन्ना बड़ा प्यारा। एक दिन वो माँ से बोला / क्यूँ फूँकती तू चूल्हा / क्यूँ न रोटियों का पेड़ एक लगा लें / आम तोड़े रोटी तोड़ें / रोटी आम खा लें ’ संवेदनशील पुत्र से संवेदनशील पिता ने एक छोटी सी घटना से रचनात्मक प्रेरणा ली थी । ऐसे में यह समझा जा सकता है कि लम्बे समय तक अपने सृजनशील पिता के साथ रहकर उस संवेदनशील पुत्र ने कितना कुछ ग्रहण किया होगा ।

दरअसल पिता और पुत्र के बीच संवेदना के स्तर पर जो एक सम्बंध बन गया था वही " जीना यहाँ मरना यहाँ’ " गीत का अंतरा बन कर अभिव्यक्त हुआ । शैली शैलेन्द्र ने इस गीत में जैसे अपनी सारी सृजनशीलता उड़ेल कर रख दी है । रचनाकार पिता को एक पुत्र की इससे बड़ी श्रद्धांजलि क्या हो सकती थी ! यदि इस गीत को शैलेन्द्र ने पूरा किया होता तो वह कैसा होता यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह सोच पाना भी कठिन है कि वह इससे अलग होता। यह गीत भारतीय दर्शन का निचोड़ -सा लगता है । शैलेन्द्र के , " सजन रे झूठ मत बोलो " , ‘" वहाँ कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहाँ’ " जैसे गीत जिस तरह के भावों की अभिव्यक्ति करते हैं शैली शैलेन्द्र ने उसी भाव की परंपरा में एक कालजयी रचना जोड़ने का काम किया है । शैलेन्द्र को लेकर जन -साधारण के बीच बहुत भ्रांतिया है। शैलेन्द्र पर बहुत काम करने की जरुरत है. हिंदी साहित्य में उन्हें यथोचित जगह अभी तक नहीं मिली है।