राहुल गांधी के बदले रूप ने सबको चकित कर दिया है। विरोधी तो जैसे राहुल के हाथों में खेल रहे हैं। सोशल मीडिया पर हल्के-फुल्के ढंग से, पालतू कुत्ते को लेकर की गयी टिप्पणी पर जब मंत्री लोग बयान देने लगें तो इसे ‘हाथ में खेलना’ नहीं तो और क्या कहेंगे? हो सकता है कि रविशंकरजी कल पीडी का इस्तीफा ही माँग बैठें। जनसभाओं में, प्राफेशनल लोगों की बैठकों में राहुल गांधी की हाजिरजबावी और चुटीली टिप्पणियाँ चर्चा में हैं। जीएसटी का विस्तार गब्बर सिंह टैक्स में करके राहुल ने विट का परिचय दिया, तो “ मैं भाजपा मुक्त भारत की बात नहीं कर सकता क्योंकि आखिर वे भी जनता के एक हिस्से के प्रतिनिधि तो हैं ही” कह कर परिपक्वता का।
इन बातों का असर खुद भाजपा के व्यवहार से जाहिर है। गुजरात में मुद्दा विकास को नहीं , ध्रुवीकरण को बनाया जा रहा है। प्रधानमंत्री पचासेक सभाएँ संबोधित करने जा रहे हैं। संसद का शीतकालीन सत्र स्थगित या संक्षिप्त किया जा रहा है ताकि मंत्रियों को केन्द्र सरकार चलाने के बजाय गुजरात सरकार बचाने के काम में लगाया जा सके। आतंकवाद जैसे नाजुक मुद्दे को भद्दे ढंग से चुनाव-नदी पार करने की नैया बनाया जा रहा है।गैर-जिम्मेवारी की हद है कि अहमद पटेल जैसे वरिष्ठ नेता पर आतंकवादियों को संरक्षण देने के आरोप लगाए जा रहे हैं। जो व्यक्ति तीन साल पहले सत्तातंत्र के सबसे प्रमुख लोगों में से था, उस पर शासक पार्टी द्वारा ऐसे हवाई आरोप लगाने का मतलब क्या होता है? दुनिया में भारतीय सत्तातंत्र के बारे में क्या राय बनेगी? यह सोचने की फुर्सत ही नहीं है, क्योंकि भाजपा गुजरात को लेकर थर्राई हुई है।
इस थर्राहट में सबसे बड़ा योगदान बदले हुए राहुल गांधी का है। कुछ लोग अभी भी आशंकित हैं कि कहीं राहुल बेमन से राजनीति करने की मनोदशा में वापस ना चले जाएँ। आशंका अपनी जगह लेकिन राहुल के बदलाव ने कांग्रेस में नये सिरे से प्राण तो फूँक ही दिये हैं। कांग्रेस गुजरात में भाजपा को सरकार बनाने से रोक पाए, ना रोक पाए, अब राहुल गांधी को ‘नान-सीरियस’ कह कर खारिज करना असंभव है। चुनाव का एजेंडा कांग्रेस द्वारा ही निर्धारित किया जा रहा है, और भाजपा समझ नहीं पा रही कि राहुल का मुकाबिला कैसे करे?
इस बदलाव का श्रेय कुछ लोग राहुल की नयी सोशल मीडिया टीम को दे रहे हैं, हो सकता है जल्दी ही किसी पब्लिक रिलेशन एजेंसी को इस ‘इमेज मेक ओवर’ का श्रेय दिया जाने लगे।
यहाँ दो बातें याद करने की हैं। एक तो उत्तरप्रदेश में कांग्रेस का चुनाव अभियान डिजाइन करने वाले प्रशांतकिशोर का इन दिनों राहुला गांधी के आस-पास कहीं पता नहीं है। वे इस समय जगन मोहन रेड्डी को अपनी “प्राफेशनल” सेवाएं दे रहे हैं। दूसरी बात, लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रचार का वह नारा याद है आपको? जगह-जगह बड़े-ब़ड़े होर्डिंग्स नजर आते थे, राहुल गांधी की तस्वीरों के साथ—“राजनीति नहीं काजनीति”। मंशा यह जताने की थी कि राहुल और उनकी पार्टी की दिलचस्पी काम-काज के लिए सत्ता हासिल करने में है, राज-पाट का सुख पाने के लिए नहीं। जनता ने संदेश अपने ढंग से समझा और यह नारा अपनाने वालों को राजनीति से मुक्त काजनीति करने की पूरी छूट दे दी।
असल में, इस नारे के पीछे वह एनजीओ सोच थी जो राजनीति मात्र को एक घटिया काम मानती है, और हर राजनेता और कार्यकर्ता को घटिया इंसान। इस तरह की सोच अंतत: राजनीतिक प्रक्रिया मात्र के प्रति चिढ़ को समाज का स्थायी भाव बना देती है। यह स्थिति किसी भी समाज में तानाशाही की शुरुआत कराती है।भारत में लोकतांत्रिक संस्थाएँ अभी भी बहुत मजबूत नहीं हैं, सामाजिक सरंचनाएँ अभी भी गहरे अन्याय से ग्रस्त हैं, इसलिए यहाँ लोकतांत्रिक राजनीति अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद समाज के लोकतांत्रिकीकरण का प्रमुख साधन है। एनजीओ आदि की अपनी भूमिका जरूर है, लेकिन राजनीति का कोई विकल्प संभव नहीं।
राहुल के बदलाव में पब्लिक रिलेशन एजेंसी, सोशल मीडिया टीम हो सकता है कि अपनी अपनी भूमिकाएं निभा रहे हों, लेकिन निर्णायक भूमिका राजनैतिक सोच की है। गुजरात के इंचार्ज राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी अशोक गहलोत हैं, काजनीति के कोई चैंपियन नहीं। अहमद पटेल और गुजरात के अन्य कांग्रेसी नेताओं की सक्रियता भी लगातार दिख ही रही है। राहुल गांधी के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं का रेखांकन भी सोची-समझी राजनैतिक रणनीति के तहत हो रहा है। राहुल गांधी को पप्पू कहने वाले खुद पप्पू बने जा रहे हैं।
भाजपा ने अपने अहंकार, आक्रामकता और अक्षमता से कांग्रेस के लिए इतनी अनुकूल स्थितियाँ कुल तीन साल में ही बना दी हैं, और कांग्रेस इस स्थिति का लाभ भी उठा ही रही है। कुल मिला कर, राजनीति मात्र से घृणा करने वाली तथाकथित काजनीति की जगह राजनीति का कांग्रेस नेत्तृत्व की सोच में वापस आना राहुल और उनकी पार्टी के लिए ही नहीं, देश के लिए भी अच्छी खबर है।