भाजपा विरुद्ध माकपा की ‘फायरिंग’ कांग्रेस का कंधा अभी नहीं

चंद्र प्रकाश झा

Update: 2018-02-17 14:04 GMT

देश की सबसे बड़ी संसदीय कम्यूनिस्ट पार्टी , माकपा , लोकसभा के 2019 में निर्धारित चुनाव में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन की हार सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हाथ मिलाये या नही इसे लेकर अंतिम तौर पर निर्णय पार्टी के हैदराबाद में इसी वर्ष 18 से 22 अप्रैल तक आयोजित की जा रही 22 वीं कांग्रेस में ही लिया जा सकेगा।

लेकिन इस निर्णय के सिलसिले में पिछले कई माह से पार्टी में अंदरूनी विचार- मंथन चल रहा है। इसके लिए पार्टी के बाहर के राजनीतिक हल्कों ,ख़ास कर अन्य संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों में और कांग्रेस ही नहीं भाजपा तक में तीव्र उत्सुकता है।माकपा कांग्रेस में गहन विचार कर अंतिम निर्णय लेने के लिए पार्टी केंद्रीय कमेटी के कोलकाता में 19 से 21 जनवरी की बैठक में राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदा को पारित कर दिया गया। लेकिन उसका मूल पाठ तत्काल जारी नहीं किया गया।

महासचिव सीताराम येचुरी ने बैठक के बाद प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि इसमें पार्टी पोलितब्यूरो की ओर से पेश मसौदा को कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार कर लिया गया है जिसे अब पार्टी-कांग्रेस से पहले पूरी पार्टी में चर्चा के लिए जारी किया जाएगा।

येचुरी ने पार्टी सूत्रों से मिली इस जानकारी के बारे में कुछ नहीं कहा कि बैठक में पोलित ब्यूरो की ओर से पेश मसौदा के अलावा एक और मसौदा खुद उन्होंने पेश किया था जिसे 31 के 56 मतों से खारिज कर दिया गया।

अलबत्ता उन्होंने बाद में लगातार यह कहा कि पारित मसौदा ' पार्टी में गंभीर चर्चा और ऊँचे दर्जे की जनतांत्रिक प्रक्रिया ' दर्शाता है। वह जोर देकर कहते रहे हैं कि माकपा की मुख्य प्राथमिकता भाजपा सरकार और उसकी नीतियों को परास्त करना है जिसके लिए वह " तमाम धर्मनिरपेक्ष ,जनतांत्रिक ताकतों " को लामबंद करना चाहती है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि पारित मसौदा में कहा गया है कि ' भाजपा के खिलाफ समुचित चुनावी कार्य-नीतियां अपनायी जाएंगी लेकिन कांग्रेस के साथ कोई तालमेल या गठबंधन नहीं किया जाएगा ".

जाहिर बात है कि ऐसे में मीडिया में कयासबाजी जोरों पर होने लगी और इस तरह की भी खबरें आए दिन फैलती रहती है कि इस निर्णय को लेकर पार्टी के येचुरी के नेतृव वाले कथित नरम ( बंगाल गुट) और उनके ऐन पहले 3 -3 वर्ष के लगातार तीन कार्यकाल तक महासचिव रहे प्रकाश कारात के कथित गरम ( केरल गुट ) के बीच घमासान छिड़ा हुआ है और कहीं इसी मुद्दे पर पार्टी ही ना टूट जाए।

प्रकाश करात को लिखना पड़ा

ऐसे हालात में कारात को नई दिल्ली , कोलकाता , हैदराबाद , चेन्नई ,कोच्चिं और अगरतला से पार्टी के अंग्रेजी में एकसाथ छपने वाले साप्ताहिक केंद्रीय मुखपत्र , पीपुल्स डेमोक्रेसी , में अपने नाम से प्रकाशित लेख में लिखना पड़ गया कि मसौदा पर " मीडिया में और राजनीतिक हल्कों में बहुत सारी टिपण्णियां आईं हैं। केंद्रीय कमेटी की बैठक से पहले ही जब यह पता चल गया कि उसके सामने एक पोलित ब्यूरो का प्रस्ताव का मसौदा और एक अल्पमत का मसौदा पेश किया जाना है मुख्यधारा के मीडिया में बहुत सारी रिपोर्टें आयी थीं। इस मौके का इस्तेमाल स्वार्थ प्रेरित तथा विकृत नतीजे निकालने के लिए किया गया था। ...... कुछ तो इससे भी आगे निकल गए और उन्होंने इसे दो व्यक्तियों , वर्तमान महासचिव और पूर्व -महासचिव के बीच के झगड़े के रूप में चित्रित किया ".

बहरहाल पारित 53 पेज के राजनीतिक प्रस्ताव को पार्टी के वेबसाइट पर बुधवार देर शाम पेश कर दिया गया जिसका अवलोकन कोई भी कर सकता है। मसौदा को सार्वजनिक करते ही जो बातें अंदरखाते चल रही थी वह पार्टी कार्यकर्ताओं की कतारों के बीच ही नहीं बाहर भी पसर गई है.

सीपीआई की प्रतिक्रिया

भाकपा नेता डी. राजा ने मसौदा से प्रतिबिम्बित माकपा की राजनीतिक कार्यनीति -रणनीति को विरोधाभासी बताते हुये कहा है कि देश के सबसे बड़े विपक्षी दल , कांग्रेस , के साथ आपसी समझ विकसित किये बिना भाजपा –विरोधी मतदाताओं में भरोसा पैदा करना संभव नहीं होगा। उन्होंने कहा कि गुजरात,राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में कांग्रेस , प्रमुख विपक्षी ताकत है जिससे वाम दलों और अन्य लोकतांत्रिक ताकतों को आपसी समझ कायम करना ही चाहिए। उन्होंने कहा कि माकपा को देश के मौजूदा हालात के मद्देनज़र अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिये। उन्होंने सुझाव दिया कि माकपा को हर राज्य की राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार अलग- अलग चुनावी रणनीति बनाने की जरूरत है।

द्व्दंव जल्दी खत्म नहीं होने वाला

कुछ विश्लेषक मानते है कि भाजपा के खिलाफ मोर्चाबन्दी में कांग्रेस के संग लगने या ना लगने का माकपा का अंदरूनी द्वंद्व जल्द खत्म नहीं होगा है। पार्टी के सैद्धांतिक रूप से उदारवादी माने जाने वाले हिस्से के बीच चुनावी वैतरणी पार करने कांग्रेस की छोटी लाइन , चाह कर भी नहीं पकड़ पाने का दर्द साफ नजर आता है. जबकि दूसरे हिस्से को कम्यूनिस्ट विचारधारा की राजनीतिक लड़ाई को बीजेपी और कांग्रेस , दोनों के ही पार , ले जाने के अपने प्रयास में अबतक की असफलता के बावजूद दर्प -सा लगता है।

दरअसल यह द्वंद्व , 1920 -1925 में बनी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा ) के 1964 में विभाजन से बनी माकपा में लगभग शुरू से है जब पार्टी ने उसी दशक के उत्तरार्ध में बिहार , उत्तर प्रदेश जैसे कुछेक राज्यों में गैर- कांग्रेस दलों की मिली -जुली सरकार से बाहर रहने का निर्णय किया. कहा जाता है कि माकपा का एक हिस्सा ऐसी सरकार में शामिल होने की पेशकश पर विचार करने के पक्ष में था और भाकपा तो ऐसी सरकार में , भाजपा के पूर्ववर्ती संस्करण , जनसंघ के भी साथ शामिल हो गई थी.

भाकपा से माकपा का विभाजन मूलतः इसी मुद्दे पर हुआ कि अविभाजित पार्टी का नेतृत्व कांग्रेस या अन्य का हाथ थाम सत्ता में दाखिल होने के पक्ष में था और जिस दूसरे हिस्से ने अलग होकर माकपा बनाई जबकि उसका यह मत था जबतक किसी सरकार को चलाने में मुख्य भूमिका नहीं मिले उसमें शामिल नहीं होना चाहिए।

द्वंद्व की दूसरी बड़ी झलक इंदिरा गांधी सरकार के दौरान दिखी जब माकपा ने उस सरकार के अधिनायकवादी राजकाज का तो विरोध किया पर वह उस सरकार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण (जेपी ) के नेतृत्व में चले आंदोलन से अलग ही रही.

इस द्वंद्व की अगली बिल्कुल साफ झलक 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी की , अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में बनी पहली सरकार के 13 दिन में ही गिर जाने से उत्पन्न राजनीतिक परिस्थितियों में दिखी. तब पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के सुझाव पर गैर -भाजपा ,गैर-कांग्रेस दलों के मोर्चा की ओर से , देश में सर्वाधिक काल तक मुख्यमंत्री रहे माकपा नेता ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाए जाने की पेशकश की गई। इसके लिए लगभग सभी ऐसे राजनीतिक दल ही नहीं स्वयं ज्योति बसु और तत्कालीन माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत तक तैयार थे .पर यह हो नहीं सका। दिवंगत हो चुके ज्योति बसु ने खुद , बाद में इसे ऐतिहासिक भूल करार दिया। ज्योति बसु को प्रधानमन्त्री बनने से रोकने के माकपा केंद्रीय कमेटी के कुछेक वोट के अंतर से लिए निर्णय को ' प्रकाश कारात लाइन ' कहा जाता है जो गठबंधन की राजनीति में माहिर सुरजीत के बाद और जोर पकड़ गया.

मसौदा नया नही

रांची के प्रखर राजनीतिक अध्येता उपेन्द्रप्रसाद सिंह के अनुसार माकपा कांग्रेस के विचारार्थ जारी मसौदा में नया कोई परिवर्तन नही हुआ , यह मसौदा ही है अंतिम निर्णय नहीं और यह किसी भी तरह से चुनाव घोषणा पत्र नहीं है। उनके अनुसार माकपा भी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी होने के अपने मूल कार्यक्रम से तनिक भटक कर उस संसदीय उस भूलभुलैया में फंस गई लगती है जिसके प्रति कम्युनिस्ट इटरनेशनल की तीसरी कांग्रेस ने 1920 में अपनाई ' लाईन ' के जरिये सबको सचेत कर दिया था।

गौरतलब है कि माकपा केंद्रीय समिति की नई दिल्ली में 26 जुलाई 2017 को सम्पन्न बैठक में राजनीतिक घटनाक्रम पर पारित रिपार्ट में भी साफ लिखा गया था कि पार्टी ' महागठबंधन ' के बजाय , भाजपा को शिकस्त देने राष्ट्रीय स्तर पर ' वाम-लोकतांत्रिक मोर्चा ' विकसित करेगी.

माकपा यूं तो निर्वाचन आयोग से मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पार्टियों में अर्से से शामिल है लेकिन मौजूदा लोकसभा में इसके 9 और राज्य सभा में सात ही हैं. येचूरी मूलतः बंगाल के नहीं हैं पर पहली बार वहीं से सांसद निर्वाचित हो सके जहां उनकी पार्टी 1977 से 2011 तक लगातार 34 बरस सत्ता में रही। पिछले साल अगस्त में जब राज्यसभा में उनका दूसरा कार्यकाल समाप्त होने को आया तो बंगाल विधानसभा में माकपा की ताकत इतनी भी नहीं बची कि वह वहां से राज्यसभा के लिए फिर से निर्वाचित हो सकें। ऐसे में राज्य विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस ने पेशकश की कि वह श्री येचुरी को फिर राज्यसभा सदस्य बनाने के लिए अपना समर्थन देने तैयार है. यह पेशकश माकपा के किसी और नेता के लिए नहीं सिर्फ श्री येचूरी के लिए थी।

माकपा ने पेशकश अमान्य कर दी और यह कह येचुरी के किसी और तरीके से भी सांसद बने रहने की संभावना को दरकिनार कर दिया कि अब वह पार्टी के महासचिव बन चुके हैं और इस पद पर रहते हुए किसी को सांसद बनाने का पार्टी प्रावधान ही नहीं है।

दरअसल , श्री येचूरी पहली बार 2015 में अपने गृह राज्य , आंध्र प्रदेश के वैजाग में आयोजित पार्टी कांग्रेस में महासचिव निर्वाचित तो हो गए पर उनका संगठन में कभी वर्चस्व नहीं रहा।माकपा के सांगठनिक ढाँचे पर कारात की ही चलती रही है जो 2015 में महासचिव बनने के पात्र नहीं रह गए थे क्योंकि पार्टी संविधान में उनके ही पेश संशोधन के पारित हो जाने के बाद किसी के लगातार तीन बार से अधिक महासचिव बनने पर रोक लग चुकी है. श्री कारात पहली बार 2005 में महासचिव चुने गए थे. वह खुद अभीतक सांसद नहीं बने हैं हालांकि उनकी पत्नी , वृन्दा कारात , बंगाल से राज्यसभा सदस्य रह चुकी हैं. कारात दम्पत्ति , फिलवक्त पार्टी पोलितब्यूरो के सदस्य हैं। श्री कारात और श्री येचूरी , दोनों नई दिल्ली में वामपंथियों का गढ़ माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके हैं.

गौरतलब है कि माकपा की बंगाल इकाई , राज्य मे सत्ता 2011 में अपने हाथ से ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के हाथ चले जाने के बाद से कांग्रेस से औपचारिक तौर पर हाथ मिलाने की पक्षधर रही है और उसने 2016 में पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी की केंद्रीय लाइन के विपरीत , बाकायदा प्रस्ताव पारित कर यह किया भी . इस कारण कुछ मजबूरी में पार्टी की केंद्रीय समिति ने राज्य इकाई को स्थानीय स्तर पर कांग्रेस से चुनावी तालमेल करने की ढील दे भी दी. मगर दांव उल्टा पड़ा और माकपा को कांग्रेस से भी पीछे रह जाने के परिणामस्वरूप सदन में मुख्य विपक्षी दल का भी दर्जा खोना पड़ गया.

बंगाल बनाम करात लाइन

इसके बाद से पार्टी में कारात लाइन और मजबूत हुई है और ' बंगाल ' लाइन कमजोर पड़ गई है .कारात लाइन को पार्टी की केरल और त्रिपुरा इकाई का भी लगभग पूर्ण समर्थन हासिल बताया जाता है जहां वह अभी सत्ता में है. त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव इसी माह हो रहे हैं जिसमें माकपा के नेतृत्व वाले वाम मोर्चा को कोई खास खतरा नहीं नजर आता है .केरल विधानसभा के बंगाल के साथ ही 2016 में हुए चुनाव में माकपा के नेतृत्व वाले ' वाम -लोकतांत्रिक मोर्चा ' ने जीत हासिल की थी. और किसी राज्य में माकपा का चुनावी प्रभाव लगभग नगण्य है.

माकपा के बाहर के फिल्मकार आनंद पटवर्धन , जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार आदि अनेक वामपंथियों की राय कमोबेश यह है कि कारात लाइन के बूते भारत में फासीवादी ताकतों के उभार से ठीक से नही लड़ा जा सकता है। कोलकाता के चिंतक अरुण माहेश्वरी ने " वामपंथ का उत्तर-सत्य " शीर्षक आलेख में कहा है कि 2019 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस संग मिल लड़ने के येचुरी के विचार को ठुकरा कर कारात गुट ने भाजपा का ही भला किया है

बहरहाल , अगले लोकसभा चुनाव के लिए माकपा की मोर्चाबंदी की लाइन पर अंतिम मुहर पार्टी के हैदराबाद कांग्रेस में ही लगेगी और देखना यह है कि पार्टी का अगला महासचिव कौन बनेगा। देखना तो यह भी है कि आम चुनाव कब और कैसे होंगे और चुनाव परिणाम क्या निकलता है।

( सीपी नाम से मीडिया हल्कों में ज्ञात लेखक , वरिष्ठ पत्रकार है और एक न्यूज एजेंसी के मुम्बई ब्यूरो के विशेष संवाददाता पद से सेवानिवृत्त होने के बाद हिंदी -अंग्रेजी में स्वतंत्र लेखन कर रहे है.)
 

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