बैंकों के निजीकरण की पहल का अर्थशास्त्रियों ने किया विरोध
बैंकिंग क्षेत्र में सुधार की जरुरत, निजीकरण की नहीं
देश के चोटी के अर्थशास्त्रियों ने सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की किसी भी पहल का पुरजोर विरोध है. एक बयान में इन अर्थशास्त्रियों ने कहा कि हाल में जिस पैमाने पर बैंकिंग घोटाले हुए हैं और कतिपय बड़ी कंपनियों और अमीर व्यक्तियों को दिये गये अनुत्पादक ऋण की वजह से जिस कदर संभावित आर्थिक नुकसान हुए हैं उसने हम सबको बुरी तरह से चौंकाया है.हम इस तथ्य को रेखांकित करते हुए चिंतित हैं कि यह मसला सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण का एक अच्छा बहाना बन गया है.
अर्थशास्त्रियों ने आगे कहा कि यह सच है कि ताज़ा घोटाला देश के दूसरे सबसे बड़े बैंक पंजाब नेशनल बैंक से जुड़ा है, लेकिन इसका बुनियादी कारण स्पष्ट रूप से बैंकिंग क्षेत्र का अपर्याप्त एवं त्रुटिपूर्ण नियमन तथा निगरानी है. इसका असर सभी बैंकों, चाहे वो किसी भी प्रकार के स्वामित्व में हों, पर हुआ है.
अचरज इस बात का है कि निजी क्षेत्र के खिलाडियों द्वाराअंधाधुंध और बेशुमार मुनाफ़ा कमाने के लालच में शुरू किये गए इस धोखाधड़ी को ही इस बात का आधार बनाया जा रहा है कि राष्ट्र के बचत की लगाम निजी क्षेत्र को सौंप दी जाये.
घोटाले और बंदी का खतरा बेहद ख़राब किस्म के नियमन से लैस निजी क्षेत्र के बैंकों पर कहीं ज्यादा है क्योंकि वित्तीय क्षेत्र सूचना संबंधी अनियमितताओं और बाज़ार की सीमाओं से बजबजा रहा है.
निजी मुनाफों की ओर झुकाव बैंक प्रबंधन को नियमों में मौजूद त्रुटियों का दोहन करने और जोखिम भरे कदम उठाने को प्रेरित करते हैं जैसाकि 2008 – 09 के दौरान अमेरिकी और यूरोपीय बैंकों द्वारा किया गया था जिसकी वजह से दुनिया को एक व्यापक वित्तीय संकट से गुजरना पड़ा था.
ऐसी स्थिति में उन्हें संकट से उबारने के लिए जिस किस्म की सहायता की आवश्यकता होती है वो देश के राजकोष के लिए कहीं अधिक महंगा साबित होता है क्योंकि बैंक के संचालन को बचाना पड़ता है.
यहां गौरतलब है कि इतना बड़ा घोटाला हो जाने के बाद भी इसका बुरा असर पंजाब नेशनल बैंक एवं अन्य बैंकों पर नहीं पड़ा है. इसकी वजह यह है कि राज्य की गारंटी सार्वजानिक बैंकिंग व्यवस्था में लोगों का भरोसा अभी भी बनाये रखे हुए है.
1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहले भारत में प्रति वर्ष निजी बैंकों के असफल होने के औसतन 35 मामले होते थे. लेकिन अधिकांश बैंकिंग व्यवस्था केसार्वजनिक क्षेत्र के नियंत्रण में आ जाने के बाद ऐसे मामलों में भारी गिरावट आयी. पर 1990 के दशक में उदारीकरण के दौर में ग्लोबल ट्रस्ट बैंक, टाइम्स बैंक और सेंचुरियन बैंक जैसे निजी बैंकों के ढहने का परिणाम सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों के साथ उनके विलय के रूप में सामने आया और स्वाभाविक रूप से उनका घाटा सार्वजानिक बैंकों के मत्थे मढ़ा गया.
अभी कई निजी बैंक बड़े पैमाने पर अनुत्पादक ऋण की समस्या से जूझ रहे है. अधिकांश मामलों में देनदारी उन्हीं कंपनियों की है जिनपर सार्वजानिक बैंकों का ऋण न चुकाने काआरोप है. कई निजी बैंक गैरजमानती ऋण देने और लगातार ऋण देने के दोषी पाये गये हैं. पंजाब नेशनल बैंक पर भी अब यही दोनों आरोप लगाये जा रहे हैं.
दरअसल, बैंकिंग गतिविधियों के अपारदर्शी होने की वजह से निजी बैंकों के मुक़ाबले सार्वजनिक बैंकों का नियमन आसान होता है. अनुत्पादक ऋण की समस्या के समाधान की दिशा में पहले कदम के तौर पर वित्त मंत्री को तमाम बैंकों को बकायदारों की सूची सार्वजानिक करने का निर्देश देना चाहिए.
देश में वित्तीय समावेशन की प्रकिया में सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों ने एक अहम भूमिका निभायी है. यह प्रक्रिया अभी भी अधूरी है. बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद ग्रामीण इलाकों में बैंकों की शाखाओं और खातों में खासा इज़ाफा हुआ है और अबतक नजरंदाज़ किये गये कृषि एवं लघु उद्योगों जैसे क्षेत्रों को ऋण मिलने में बढ़ोतरी हुई.
निजी बैंक आज भी इस किस्म की गतिविधियों से बचते हैं और गरीबों को छोड़कर अपना सारा ध्यान अमीरों के हितों पर केन्द्रित करते हैं.
इस नाजुक मोड़ पर सभी बैंकों के पर्याप्त और कारगर नियमन और निगरानी पर ध्यान केन्द्रित करने की जरुरत है. साथ ही, नियमन व्यवस्था को सख्त, पारदर्शी और जिम्मेवार बनाने की आवश्यकता है. इस संकट का बहाना बनाकर बैंकिंग व्यवस्था का निजीकरण करने से समस्या और बढ़ेगी ही.