मानवीय सभ्यता का एक दौर वह भी था जब दूसरों की मूर्तियों को, उनके आस्था-स्थलों को तोड़ना, उनके पुरुषों की हत्या करना और उनकी औरतों को अपमानित करना, लूटना-खसोटना, हर स्तर पर उनका विनाश करना सब सभ्य समाज में स्वीकार्य था. फिर हमने ही इनका निषेध करना शुरू किया. हमने ही सभ्यता के पन्ने पलटे व नये पन्नों में लिखा कि ऐसा हर व्यवहार मानवता की सांस्कृतिक चेतना पर प्रहार करने वाला, हमारी सांस्कृतिक यात्रा को पीछे धकेलने वाला और मनुष्यता को अपमानित करने वाला माना जाएगा. धीरे-धीरे यह सब मूल्यों-मानक के रूप में स्वीकार्य होता गया और हम वहां से कई कदम आगे निकल आए. ऐसा नहीं कि प्रतिगामी ताकतें समाप्त हो गईं. हुआ कि ऐसी ताकतें सब तरफ से निषेध व निंदा से हतप्रभ होती-होती पीछे चली गईं.
बामियान के तालीबानो जैसे
ऐसा लग रहा है जैसे हम उसी दौर की तरफ तेजी से लौटने की यात्रा में लगे हैं और जो ताकतें नेपथ्य में चली गई थीं, मुख्य मंच पर अट्टहास कर रही हैं. त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी की शून्य से शिखर तक की यात्रा में खतरनाक कुछ भी नहीं था बल्कि वह लोकतंत्र की शक्ति का ही प्रमाण था. लेकिन उसके बाद जो हुआ और सारे देश में जिस तरह उसे फैलाया गया, वह खतरनाक है, लोकतंत्र के लिए अपशकुन है. त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति का तोड़ा जाना, मूर्ति का सर धड़ से अलग करना,उससे फुटबॉल खेलना और त्रिपुरा के नये राजनीतिक नेतृत्व द्वारा, वहां के राज्यपाल द्वारा और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं द्वारा उसका सहर्ष समर्थन करना जैसे सारे देश के मुंह पर कालिख पोत गया. देश की सामूहिक चेतना कभी इतनी अपमानित और बदरूप नहीं हुई थी जितनी इस घटना से और इसके बाद की घटनाओं के दौर से हुई है. शर्म से झुका है हमारा माथा ! यह शर्म व पीड़ा वैसी ही है जैसी बामियान में महात्मा बुद्ध की ऐतिहासिक मूर्तियों को तालीबानों द्वारा विनष्ट करने की वारदातों से हुई थी जबकि कहां दूरदराज का बामियान और कहां हमारा भारत ! लेकिन शर्म तो शर्म है अगर आपको आती हो ! भौगोलिक दूरियां यदि मानवीय चेतना को कुंद करती होतीं तो गांधी की हत्या के बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ ने शर्म व शोक से सर नहीं झुकाया होता और हम चेकोस्लोवाकिया में रूसी टैकों की धड़धड़ाहट को इस तरह नहीं सुन पाते मानो वह हमारी छाती पर चढ़ने वाला हो और बांग्लादेश के जन्म की पीड़ा को हमने अपनी नसों में उतरते महसूस नहीं किया होता. दुनिया भौगोलिक रूप से ही नजदीक नहीं आ गई है बल्कि मानवीय चेतना ने भी लंबा सफर तै कर लिया है.
सिलसिला कहां थमेगा ?
सवाल यह नहीं है कि लेनिन महान थे या नहीं, और शासक दल के बड़बोले लेकिन राजनीतिक निरक्षरता के धनी एक महानुभाव ने जैसा कहा कि वे आतंकवादी थे, तो वे आतंकवादी थे या नहीं, यह सवाल भी नहीं है. बात एकदम सीधी है कि विश्व इतिहास को और हमारी चेतना को चालना देने वाली स्मृतियों के साथ हमारा नाता क्या होगा ? क्या उन्हें हम तोड़ेंगे, ढाहेंगे, विनष्ट करेंगे और उन्हें अपमानित कर, सारी मानवीय चेतना का अपमान करेंगे ? फिर कैसे कह सकेंगे कि टायलेट की सीट पर हिंदू देवी-देवताओं के चित्र बनाना, बीयर की कोई ब्रांड राम के नाम से जारी करना कुसभ्यता है ? लेनिन से हमारे चाहे जितने मतभेद हों, विश्व इतिहास में मानवीय गरिमा व चेतना का वैसा पैरोकार खोजे न मिलेगा. वे किसी वाद के प्रतीक-पुरुष भर नहीं हैं बल्कि दुनिया के आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, लेनिन का नाम छोड़ कर वह इतिहास बन ही नहीं सकता है. यह पहचानना साम्यवाद का प्रचार नहीं, भारतीय परंपरा के साम्ययोग का विवेक है.
क्या कोई पार्टी आज जीत गई तो वह कल को इतिहास से पोंछ डालने की अधिकारी हो जाएगी ? तो कल को वह हार जाएगी तो? क्या तब जीतने वाला फिर उसे भी पोंछने का अधिकारी हो जाएगा ? क्या यह खेल इसी प्रकार खेला जाता रहेगा और हम भीड़ की तरह इसे देखते रहेंगे ? फिर कोई ताजमहल तोड़ेगा और कोई सड़कों के नाम की पट्टियां उखाड़ेगा, और अपने लोगों के नाम की पट्टियां गाड़ेगा ताकि कल कोई उसे भी उखाड़ फेंके. कभी साम्यवादियों ने, स्टालिन ने यह किया था कि शासक बदलने के साथ ही इतिहास भी बदला जाने लगता था. हमारे यहां भी एक अभागा दौर चला था कि जब चीन के अध्यक्ष माओ को अपने भावी हिंदुस्तान का भी अध्यक्ष घोषित करने वाले नक्सलियों ने महात्मा गांधी की मूर्तियां तोड़ने का अभियान चलाया था. न मूर्तियां बनाने से गांधी महान बने थे, न तोड़ने से उनका कद रत्ती भर भी छोटा हुआ. हां, बनाने व तोड़ने वाले न जाने कब के इतिहास के कूड़ाघर में फेंक दिए गये. तब जयप्रकाश नारायण ने एक सार्वजनिक वक्तव्य में कहा था : “ यदि हिंसावादियों ने गांधीजी को अपना दुश्मन माना है, तो इसमें आश्चर्य क्या ? बल्कि मुझे तो इसकी खुशी है कि रक्त क्रांति वाले गांधीजी के विचारों में इतनी शक्ति पाते हैं और उनसे इतना भय खाते हैं कि उनका नामोनिशांन मिटाने पर उतारू हो गये हैं. लेकिन ये बड़े नादान लोग हैं. सत्य कभी मिटाया नहीं जा सकता. उसे मिटाने की जितनी कोशिश होगी, वह उतना ही अधिक निखरेगा और चमकेगा.” अब जयप्रकाश नारायण भी नहीं हैं लेकिन सत्य तो है - निखरता हुआ, चमकता हुआ !
त्रिपुरा में लेनिन से शुरू हुआ अराजकता का यह अभियान अब तक पेरियार, आंबेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, महात्मा गांधी तक पहुंचा है. इसका अंत कहां होगा ? श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मूर्ति तोड़ने वाला वामपंथ और आंबेडकर या गांधी की मूर्ति तोड़ने वाला दक्षिणपंथ आपको एक साथ ही, एक-से अंधपंथ का अनुयायी नहीं लगता है? अंधे इतिहास बनाने का दावा कर रहे हैं.
घटिया राजनीति की घटिया चाल
कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने इस मूर्ति भंजन अभियान की कड़ी निंदा की है. लेकिन कहां ? उनका कोई आधिकारिक बयान अब तक तो प्रकाशित नहीं हुअा है. कहा जा रहा है कि उनकी ‘कड़ी निंदा’ गृहमंत्रालय को दी गई है. फिर मंत्रालय क्या कर रहा है? अखबारों की खबर बताती है कि गृहमंत्री ने त्रिपुरा सरकार से कहा है कि वह नई सरकार के बनने तक कानून-व्यवस्था संभाले तथा अपराधियों से कड़ाई से निबटे. मतलब उनके लिए यह कानून-व्यवस्था का मामूली मामला भर है जिसे वे नई सरकार के मत्थे मढ़ कर किनारे हो जाना चाहते हैं. प्रधानमंत्री ने मूर्ति तोड़े जाने की ‘कड़ी निंदा’ कब की ? जब पेरियार की मूर्ति तोड़ने का बाजाप्ता निर्देश तमिलनाड के भाजपा अधिकारी ने दिया और वह पोशीदा निर्देश सार्वजनिक हो गया और मूर्ति तोड़ी गई. जब त्रिपुरा में लेनिन की दो-दो मूर्तियां तोड़ी गईं तब उन्हें ऐसा ‘कड़ा निर्देश’ देने की जरूरत नहीं लगी थी, क्योंकि लेनिन से बदला लिया जा सकता है, पेरियार के लोग बदला लेने लगेंगे, तो सौदा महंगा हो जाएगा. यह घटिया राजनीति की घटिया चाल भर है. ऐसी ही कड़ी निंदा गौरक्षकों की हिंसा की भी की गई थी, दलितों पर हिंसा की भी की गई थी, मुसलमानों पर हमलों की भी की गई थी. यह वह बोली है जो दोनों तरफ दो तरह से सुनाई देती है. इसलिए हिंसा भी जारी रहती है और ‘कड़ी निंदा’ भी. लेकिन हम क्या करें, शर्म से झुका हमारा माथा ऐसे बयानों से उठता नहीं है. वह आहत है और बार-बार पूछता है : काबे किस मुंह से जाओगे गालिब / शर्म तुमको मगर नहीं आती !