चंद्रबाबू नायडू द्वारा अविश्वास प्रस्ताव लाने के मायने
विपक्षी एकजुटता की तैयार होती जमीन
शिवसेना की टिप्पणियां भाजपा को आहत भले ही कर रही हों, लेकिन उसे चिंता में नहीं डाल रही. कारण, विचारधारा और प्रवृति के लिहाज से दोनों पार्टियां एक ही खेमे से आती हैं. लेकिन तेलुगू देशम के मुखिया और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू का भाजपा - नीत गठबंधन से अलग होने का फैसला विपक्षी एकजुटता में तेजी लाने वाला साबित हो सकता है. तेलुगू देशम द्वारा मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाना इस दिशा में पहला कदम माना जा रहा है.
एनडीए से अलग होने का औपचारिक ऐलान करने के बाद से नायडू लगातार अन्य विपक्षी दलों से संपर्क साध रहे हैं और लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए आवश्यक 50 सांसदों के हस्ताक्षर जुटाने की कोशिश कर रहे हैं. उनके प्रयासों को शुरूआती सफलता मिलती दिख रही है क्योंकि कांग्रेस के 48 सांसद, अन्नाद्रमुक के 37 सांसद, सीपीएम के 9 सांसद और वाईएसआर कांग्रेस के 9 सांसद उनके समर्थन में आते दिखायी दे रहे हैं. नायडू के पास उनके अपने 16 सांसद तो हैं ही.
सरसरी तौर पर देखें तो नायडू के पास अब प्रस्ताव लाने के लिए 50 के बजाय कम – से – कम 119 सांसदों का समर्थन है. और अगर इस कवायद में शिवसेना और तृणमूल कांग्रेस भी शामिल हो जाये, जिसके आसार काफी हैं, तो यह संख्या भाजपा को चिंता में डालने के लिए काफी होगी. ऐसा नहीं है कि भाजपा इस प्रस्ताव पर सदन में हार जायेगी, लेकिन इसके दो प्रमुख सहयोगियों – शिवसेना और तेलुगू देशम – का एनडीए से बाहर आना और विपक्षी खेमे की ओर जाना काफी कुछ कहेगा.
सोमवार को आने वाला अविश्वास प्रस्ताव कई राजनीतिक मायनों का खुलासा करेगा. भाजपा इस कवायद में खलल या रुकावट डालने में कामयाब नहीं हो पायेगी क्योंकि यह संसद का एक लोकतांत्रिक हथियार है जो सत्ता में काबिज सरकार को गिरा पाये या नहीं, पर उसकी मंशा और असलियत को जरुर उजागर कर देती है.
ताज़ा मामले में भी, इस अविश्वास प्रस्ताव ने विपक्षी दलों के नजरिये से एक खास अहमियत हासिल कर ली है. यह साफ़ तौर पर नज़र आ रहा है कि यह कदम व्यापक विपक्षी एकता के लिए एक उत्प्रेरक का काम करेगा.
हाल तक भाजपा की सहयोगी रही पार्टी द्वारा लाया गया यह प्रस्ताव वृहत विपक्षी एकता को मुखरित करेगा. इस प्रस्ताव से सरकार गिरने के कगार पर भले ही न जाये, पर इसपर होने वाली बहस की आंच उसे झुलसा जरुर देगी. और यह सब होगा उस सदन में जहां संख्या बल के हिसाब से विपक्षी दल काफी कमजोर हालत में हैं.
दूसरी ओर, नायडू और वाईएसआर कांग्रेस जैसे दलों के विपक्षी खेमे से जुड़ने से विपक्षी एकता को एक नयी गति मिलेगी. इस क्रम में एक दूसरा मोर्चा तैयार करने का एक बड़ा रास्ता खुलेगा. इस दिशा में पहला कदम अभी कुछ ही दिनों पहले कांग्रेस पार्टी की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी ने उठाया था जब उन्होंने एक रात्रिभोज का आयोजन किया था जिसमें 20 राजनीतिक दलों के नेता शामिल हुए थे.
तीसरी बात यह है कि इस प्रस्ताव से भाजपा को एक नैतिक / राजनीतिक झटका लगेगा. क्योंकि कर्नाटक विधानसभा चुनावों से ऐन पहले संसद में अपना बचाव करते हुए वह बहुत ख़ुशी और राहत महसूस नहीं करेगी.
इस प्रसंग का चौथा पहलू यह है कि आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने जैसे कई वादों के पूरा न होने के मसले पर राज्य में गला – काट राजनैतिक प्रतिद्वंदिता का दबाव झेल रहे चंद्रबाबू नायडू को अब आगे आने का मौका मिल जायेगा. इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि भाजपा से अलग होने का ऐलान करने के कुछ ही घंटों के भीतर ही वे राजनीति के केंद्र में आ गये. वैसे भी, जगनमोहन रेड्डी के वाईएसआर कांग्रेस के 9 सांसदों के बरक्स उनके पास 16 सांसदों की फ़ौज होने की वजह से वे अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं. इस संबंध में एक रोचक तथ्य यह भी है कि भाजपा के साथ जाने के बावजूद विपक्षी नेताओं के साथ उनके मधुर संबंध रहे हैं और वामपंथी व अन्य दलों के नेताओं के साथ उनकी बराबर मुलाकातें होती रही हैं.
उधर, शिवसेना लगातार भाजपा पर कठोर आक्षेप कर रही है. उसने तो अब यह घोषणा कर दी है कि “मोदी लहर का जादू उतर चुका है”. महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा से पिछड़ जाने से बौखलाई शिवसेना कांग्रेस पार्टी की राज्य इकाई से संपर्क साधकर इस बात का स्पष्ट संकेत दे रही है कि उसने आगामी आम चुनावों में भाजपा के बजाय अन्य राजनीतिक दलों से समझौता करने का विकल्प खुला रखा है. तमिलनाडु में, भाजपा द्वारा रिश्ते मजबूत करने के लगातार प्रयासों के बावजूद डीएमके के मुखिया स्टालिन ने यह सुनिश्चित किया कि उनके सांसद सोनिया गांधी के रात्रिभोज में मौजूद रहें. यह इस बात का संकेत था कि वो साथ काम कर चुके विपक्षी दलों से किनारा करने के इच्छुक नहीं हैं.
भाजपा एकबार फिर से अलग – थलग पड़ती नजर आ रही है. वह अपने सहयोगियों का समर्थन खोती जा रही है. सूत्रों की माने तो अकाली दल भी बस “एक धागे के सहारे” ही जुड़ी हुई है. उसका आधार समर्थक भाजपा का घनघोर आलोचक बन चुका है. फिलहाल अकाली दल भले ही गठबंधन को चुनौती न दे रहा हो, लेकिन उसकी शक्ति भी सवालिया निशान के घेरे में आ गयी है. टीडीपी का गठबंधन से बाहर निकल जाना भाजपा के लिए एक बड़ा झटका है. दक्षिण में अब उसके साथ कोई ताकतवर सहयोगी नजर नहीं आ रहा है.
भाजपा नेताओं का यह दावा कि “तेलुगू देशम द्वारा खाली की गयी जगह को हम भर देंगे” एक बड़बोलापन लग रहा है क्योंकि आंध्र प्रदेश की राजनीति में नायडू और वाईएसआर कांग्रेस, दोनों, की जड़ें गहरी हैं. जिस तरह की भावना और उत्साह से लबरेज होकर नायडू ने एनडीए से बाहर जाने का ऐलान किया, उससे इस बात का पता चलता है कि अब उभरकर सामने आये अपने मजबूत प्रतिद्वंदी को परास्त करने के लिए वे दृढ़प्रतिज्ञ हैं. एक ज़माने में जनता दल में रहे एक वरिष्ठ नेता ने नायडू के इस अंदाज़ पर टिप्पणी करते हुए कहा कि, “संयुक्त मोर्चा के दौर में हमें नायडू का यह रूप नजर नहीं आया था और निश्चित रूप से इसका स्वागत किया जाना चाहिए.”
दरअसल, भाजपा के साथ गए छोटे क्षेत्रीय दलों के लिए अब यह अस्तित्व का सवाल बन गया है. उन्हें भाजपा द्वारा निगल लिए जाने का खतरा सता रहा है. पिछले कुछ समय से शिवसेना अपनी बाहें फड़का रही है. टीडीपी बाहर जा चुकी है. जद (यू) के नेता नीतीश कुमार की प्रतिक्रिया का इंतजार कर रहे हैं, हालांकि पार्टी के कई नेता उनके प्रतिद्वंदी शरद यादव के संपर्क में हैं. यादव के निकट माने जाने विधायकों का मानना है कि “नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से समाप्त हो चुके” और यह बस समय का मामला है जब बिहार में उनके विधायक अपने भविष्य के बारे में फैसला लेंगे.
रोचक बात यह है कि जिस बीजू जनता दल ने भाजपा के प्रति ज्यादा बैर नहीं दर्शाया था, वो भी आगामी चुनावों में हाशिए पर जाने के डर से अचानक जाग उठी है. कांग्रेस के खिलाफ भी, हालांकि बीजू जनता दल क्षेत्रीय दलों के संपर्क में है. लेकिन इस क्रम में उसने यह साफ़ कर दिया है कि किसी भी सूरत में वह भाजपा के साथ नहीं जाना चाहेगी. यह सही है कि बीजद सोनिया गांधी के रात्रिभोज में शामिल नहीं थी, लेकिन लोकसभा चुनावों में अपनी संभावना तलाशने की गरज से वह ममता बनर्जी और वामपंथी दलों के संपर्क में है.