खिसक रही है हवाई दावों से बनी चुनावी जमीन
बता रहे हैं बिहार, उत्तर प्रदेश उपचुनाव के नतीजे
उपचुनावों के नतीजों के बाद यह सवाल तेजी से बहस के केंद्र में है कि क्या मोदी सरकार की उलटी गिनती शुरू हो गई है! पंजाब, राजस्थान और मध्यप्रदेश के बाद अब उत्तर प्रदेश और बिहार में हुए उपचुनावों में बीजेपी को करारी शिकस्त मिली। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की गोरखपुर सीट और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की फूलपुर सीट बीजेपी ने गंवा दी। दोनों सीटें सपा के खाते में गईं। योगी आदित्यनाथ की परंपरागत सीट रही गोरखपुर में सपा उम्मीदवार प्रवीण निषाद ने बीजेपी प्रत्याशी उपेंद्र दत्त शुक्ला को 21 हजार वोटों से हराया, वहीं फूलपुर में सपा प्रत्याशी नागेंद्र सिंह पटेल ने बीजेपी के कौशलेंद्र सिंह पटेल को 59 हजार वोटों के बड़े अंतर से पराजित किया।
दरअसल, गोरखपुर और फूलपुर, दोनों सीट बीजेपी की प्रतिष्ठा से जुड़ी हुई थीं, क्योंकि एक खुद मुख्यमंत्री योगी ने खाली की थी और दूसरी उप-मुख्यमंत्री ने। गोरखपुर सीट पर सपा की धमाकेदार जीत इसलिए भी मायने रखती है कि इस सीट पर पिछले आठ चुनाव से गोरखनाथ मठ का कब्जा था। योगी आदित्यनाथ यहां से लगातार पांच बार चुनाव जीते थे। बीजेपी को 27 साल में पहली बार यहां हार का सामना करना पड़ा है। गोरखपुर सीट से योगी अजेय माने जाते थे और यहां जीत हासिल करने में उन्होंने पूरी ताकत भी लगाई गई थी। लेकिन उनकी कोई कोशिश पार्टी के काम नहीं आई और बीजेपी प्रत्याशी को तगड़ी हार का सामना करना पड़ा। उत्तर प्रदेश की दोनों ही सीटों पर बसपा के साथ तालमेल और रालोद, निषाद पार्टी और पीस पार्टी समेत कई दलों से मिला समर्थन सपा के लिए फायदेमंद साबित हुआ।
दूसरी ओर, बिहार की अररिया लोकसभा सीट पर राजद ने अपना कब्जा बरकरार रखा है। राजद प्रत्याशी सरफराज आलम ने बीजेपी के प्रदीप सिंह को 61 हजार वोटों से हरा दिया। अलबत्ता विधानसभा उपचुनाव में दोनों ही पार्टियां बराबरी पर रहीं। जहानाबाद विधानसभा सीट राजद की झोली में चली गई, वहीं भभुआ से बीजेपी प्रत्याशी ने जीत हासिल की। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पाला बदल कर बीजेपी के साथ सरकार बनाने और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बाद सत्ताधारी गठबंधन और विपक्षी पार्टी राजद के बीच यह पहली सीधी चुनावी टक्कर थी, जिसमें राजद ने कामयाबी हासिल की। बीजेपी को नीतीश के साथ का खास फायदा नहीं मिला।
जाहिर है, पूर्वोत्तर के राज्यों में मिली ‘ऐतिहासिक’ जीत पर खुशी मनाने के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश और बिहार उपचुनावों के नतीजों से बीजेपी सकते में है। अब वह इस हार के नए-नए बहाने ढ़ूढ़ रही है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कहना है कि ‘‘एसपी-बीएसपी की राजनीतिक ‘सौदेबाजी’ से पार्टी यह चुनाव हार गई।’’ वे यह कहते हुए शायद भूल गए कि पूर्वोत्तर के राज्यों और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी ने जीत के लिए किन-किन ताकतों को अपने गले लगाया था।
इन नतीजों के बाद मोदी सरकार लोकसभा में अल्पमत में आ गई है। 2014 के आम चुनाव में बीजेपी ने अकेले दम पर 282 सीटें जीतकर केन्द्र में अपनी सरकार बनाई थी। लेकिन चार साल का कार्यकाल पूरा होने तक यह आंकड़ा अब 272 पर सिमट गया है। जिसमें से भी कीर्ति आजाद, जो कि अभी पार्टी से निलम्बित चल रहे हैं, यदि उनकी सीट हटा दें, तो बीजेपी सदन में अल्पमत में आ गई है। लोकसभा के उपचुनाव में अब तक बीजेपी 10 सीटों पर चुनाव हार चुकी है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के अंदर बीजेपी ने 71 सीटें जीती थीं, तो पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में उसने 300 से ज्यादा सीटें जीतकर विपक्ष का काम तमाम कर दिया था। लेकिन महज एक साल के अंदर ऐसा क्या हुआ कि यहां से उसकी दो लोकसभा सीटें कम हो गईं।
अकेले उत्तर प्रदेश ही नहीं बीजेपी-शासित दीगर राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और बिहार में भी सियासी बयार अब बदल रही है। कल तक बीजेपी के मजबूत गढ़ माने जाने वाले इन राज्यों में कांग्रेस और दीगर क्षेत्रीय दलों ने सत्ता की दहलीज पर दमदार दस्तक दी है। इन राज्यों से हाल ही में आए उपचुनावों के नतीजे ये बता रहे हैं कि 2019 के आम चुनाव में बीजेपी को विपक्षी पार्टियों से कड़ी टक्कर मिलेगी। सत्ताधारी बीजेपी के लिए इन राज्यों में मुकाबला आसान नहीं रहेगा। पिछले तीन महीने में पहले राजस्थान की दो संसदीय सीटों अजमेर एवं अलवर और एक विधानसभा सीट मांडलगढ़ पर फतह का परचम लहराने के बाद मध्यप्रदेश की मुंगावली और कोलारस विधानसभा सीट कांग्रेस ने एकतरफा जीती हैं।
राजस्थान में कांग्रेस की जीत इसलिए मायने रखती है कि साल 2014 के आम चुनाव में मोदी लहर में बीजेपी ने राज्य की पूरी की पूरी 25 सीटों पर कब्जा कर लिया था और कांग्रेस यहां खाता भी नहीं खोल सकी थी। कमोबेश यही तस्वीर साल 2013 के विधानसभा चुनावों में थी, जब वसुधंरा राजे के नेतृत्व में बीजेपी ने यहां कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था। इस चुनाव में राज्य की 200 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस बमुश्किल 21 सीट जीत पाई थी। राजस्थान में 2 लोकसभा सीटों के लिए उपचुनाव में राज्य के जिन 16 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान हुआ, उनमें से 16 की 16 सीटों में बीजेपी हारी। एक भी विधानसभा क्षेत्र में उसे बढ़त नहीं मिली। सिर्फ राजस्थान ही नहीं, मध्यप्रदेश में जीत भी कांग्रेस के लिए महत्व रखती है। जबकि पिछले चौदह सालों से कांग्रेस यहां सत्ता से बेदखल है।
उप चुनावों में बीजेपी की हार का असर आने वाले समय में राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करेगा। जीत से सबसे बड़ा फायदा विपक्ष को हुआ है। 2014 के आम चुनावों ने जहां ये संकेत दिया था कि क्षेत्रीय दलों के दिन लदने वाले हैं, वहीं अब यह स्पष्ट हो रहा है कि भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों को समाप्त नहीं माना जा सकता। गोरखपुर, फूलपुर और अररिया के चुनावी नतीजों ने क्षेत्रीय दलों को नई जिंदगी दी है। इन नतीजों ने गठबंधन की संभावनाओं के लिए नया नजरिया पेश किया है। इन सीटों पर जिस प्रकार सपा-बसपा ने मिल कर बीजेपी को पटखनी दी है, ठीक इस तरह का फॉर्मूला साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में विपक्ष अन्य राज्यों या राष्ट्रीय स्तर पर भी आजमा सकता है। खासकर जिन राज्यों में बीजेपी का सीधा मुकाबला एक से अधिक पार्टियों से है, वहां यह फार्मूला अधिक असर दिखा सकता है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद खासतौर पर बहुजन समाज पार्टी की स्थिति बहुत खराब हो गई थी। समाजवादी पार्टी भी कमजोर हो गई थी। ऐसे में उन्हें इस बात का एहसास हो गया था कि अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए साथ आना होगा। ऐसा ही प्रयोग 2015 में लालू प्रसाद यादव, राहुल गांधी और नीतीश कुमार ने एक साथ आकर किया था। दोनों ही मौकों पर ये प्रयोग कामयाब रहा। यही वजह है कि विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस देश में चुनाव पूर्व एक ऐसा सियासी गठबंधन बनाना चाहती है जो 2019 में बीजेपी को सत्ता में आने से रोक सके। कोशिशें शुरू भी हो गई हैं। चुनावी नतीजों के आने से ठीक एक दिन पहले यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विपक्ष के नेताओं को डिनर पर बुलाया था। उसमें देश के 20 राजनीतिक दलों के नेता एकजुट हुए थे। ये वह नेता हैं जिनके दलों को अपने-अपने राज्य में लोकसभा चुनाव के दौरान हार देखने को मिली थी। विपक्ष के इन नेताओं के बीच अब इस बात की समझ बन रही है कि एक साथ होने पर ही वे बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जोड़ी का विजय रथ रोक सकते हैं।
सत्ताधारी पार्टी बीजेपी की देश में आज जो स्थिति में हैं, वैसी मजबूत स्थिति उसकी कभी नहीं रही। केन्द्र सरकार में तो वह बहुमत में है ही, देश के 21 राज्यों में उसकी सरकार है। जाहिर है, 2019 आते-आते एंटी इनकम्बेंसी का फैक्टर भी बढ़ेगा। लोग सरकार से तरह-तरह के सवाल पूछेंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केन्द्र की सत्ता संभालने से पहले उनसे जो वादे किए थे, वे अभी तक पूरे नहीं हुए हैं। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सीमा सुरक्षा आदि सभी मोर्चों पर उनकी सरकार विफल रही है। तिस पर पहले नोटबंदी और फिर उसके बाद जीएसटी ने रही सही कसर पूरी कर दी। सरकार के इन ‘ऐतिहासिक’ कदमों से छोटे व्यापारियों से लेकर बड़े कारोबारी तक अभी भी सदमे में हैं।
गुजरात विधानसभा चुनाव और उसके बाद हुए उपचुनावों के नतीजे देखें तो मोदी सरकार को लेकर ग्रामीण इलाकों में अब गुस्सा तेजी से बढ़ रहा है। कहने को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किसानों से उसकी उपज की लागत पर डेढ़ गुना मुनाफा देने का वादा किया था। लेकिन हालत यह है कि पूरे देश में किसान अपनी उपज का सही दाम न मिलने से परेशान है। नौजवानों की नौकरी की आस भी अब धूमिल पड़ती जा रही है। ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘न्यू इंडिया’ जैसी योजनाएं महज लुभावने नारे बनकर रह गई हैं। इन योजनाओं से किसी को कोई फायदा नहीं हुआ है। राजनीतिक हालात कमोबेश साल 2004 जैसे ही हैं, जब कांग्रेस पार्टी ने क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन बना कर उस वक्त की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था। फिर राजनीति में इतिहास तो कई बार दोहराया गया है।