अविश्वास प्रस्ताव और महाअभियोग नोटिस का चुनाव से रिश्ता

चंद्र प्रकाश झा

Update: 2018-03-31 14:21 GMT

केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के विरुद्ध विपक्षी दलों के अविश्वास प्रस्ताव नोटिसों की बेमौसमी झड़ी-सी लग गई। लेकिन लोकसभा को उन पर ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं मिली है । उधर , संसद के चालु बजट सत्र के लगभग अंत में विपक्ष द्वारा उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरूद्ध महाअभियोग प्रस्ताव की नोटिस राज्यसभा में दाखिल करने की तैयारी है। महाअभियोग का महत्व , अविश्वास प्रस्ताव नोटिस से कमतर नहीं है। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों के संयुक्त कदम के तहत महाअभियोग नोटिस को संसद के उच्च सदन , राज्यसभा के विचारार्थ सोमवार को दाखिल करने के लिए उसके आवश्यक कम से कम 50 के हस्ताक्षर हासिल बताये जाते हैं। मौजूदा 16 वीं लोकसभा का कार्यकाल 2019 के मध्य में खत्म होने वाला है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा अक्टूबर 2018 में ही सेवानिवृत्त होने वाले हैं. ऐसे में जाहिर है कि अविश्वास प्रस्ताव और महाअभियोग की नोटिस , अगले आम चुनाव की बड़ी तैयारी की बानगी है।

अविश्वास प्रस्ताव , संसद के निम्न सदन लोकसभा में ही लाये जा सकते हैं। विपक्षी दलों द्वारा इनकी बाकायदा छह नोटिस दी गई। लेकिन पांच मार्च से बजट सत्र की की शेष अवधि के लिए कार्यवाही शुरू होने के बाद हर दिन सदस्यों के हंगामे को वजह बताकर स्पीकर सुमित्रा महाजन ने उनका कोई संज्ञान ही नहीं लिया। अविश्वास प्रस्ताव से प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की करीब चार बरस पुरानी सरकार गिर ही जाएगी ये तो उसके धुरतम विरोधियों ने भी शायद ही सोचा हो .आम लोगों के बीच कमोबेश यही खयाल रहा कि क्या फर्क पड़ता है ऐसे किसी भी प्रस्ताव , उसकी नोटिस , उस पर गर्मा-गर्म बहस और फिर उसके पास हो ही जाने या नहीं हो पाने से क्योंकि अब तो कभी भी आम चुनाव होने हैं और आगे जो कुछ भी होना है चुनावी मैदान में हो तो बेहतर रहेगा.

बहस से भय

वरिष्ठ पत्रकार टी के अरुण ने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि लोकसभा में स्पीकर सुमित्रा महाजन ने जिस तरह से मोदी सरकार के समर्थक अन्ना द्रमुक के चंद सदस्यों के कावेरी जल विवाद की आड़ में रोज -ब -रोज के हंगामा के बीच सदन में अव्यवस्था होने के आधार पर उसकी कार्यवाही बार- बार स्थगित करके अविश्वास प्रस्ताव नोटिस पर चर्चा को टाला वह ' शर्मनाक ' है। उनके अनुसार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ई के पलानिस्वामी ने ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम के अपने गुट की सरकार के गठन के लिए मोदी जी को सार्वजनिक रूप से धन्यवाद ज्ञापित किया और टीएसआर कांग्रेस , तेलुगु देशम की जगह राजग गठबंधन में आने के लिए लालायित है। उन्होंने लिखा है कि स्पीकर को लोकतांत्रिक सिद्धांतों के तहत इस नोटिस को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर उस पर चर्चा करानी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने मोदी सरकार की शह पर संसदीय लोकतंत्र को अस्थिर करने के प्रयासों में साथ दिया। यह भविष्य में खतरनाक नज़ीर बन सकती है , जब कोई भी अल्पमत सरकार उसके विरुद्ध लाये जाने वाले किसी अविश्वास प्रस्ताव पर ऐसा ही करवाएगी। उनका कहना है कि मोदी सरकार को सदन में अपार बहुमत हासिल है और वह इस तरह के अविश्वास प्रस्ताव पर गिरने वाली भी नहीं है. फिर भी मोदी सरकार इस प्रस्ताव को नज़रअंदाज़ इसलिए करना चाहती है कि अगर प्रस्ताव पर बहस होगी तो उसके कार्यकाल की उन बहुत सारी बातों पर चर्चा होगी जो उसे नाग़वार है। इन बातों में नीरव मोदी - पीएनबी घोटाला ही नहीं , विदेशों से काला धन वापस लाने का मोदी जी का चुनावी वादा न पूरा करना , नोटबंदी से हुए भयावह आर्थिक नुक्सान , पाकिस्तान के प्रति ढुलमुल नीति , गौ -रक्षा के बहाने मुसलमानों और दलितों पर बढ़ते हिंसक हमले , भाजपा शासित उत्तर प्रदेश और उसकी सांझा सरकार वाले बिहार में जगह -जगह साम्प्रदायिक दंगे , किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि , सीबीएससी के प्रश्नपत्र और कर्नाटक विधान सभा चुनाव कार्यक्रम का लीक हो जाना और इन सबसे अहम् , देश में बेरोजगारी की विकराल होती समस्या शामिल है।

केंद्र की किसी भी सरकार के विरुद्ध लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाये जाने का यह पहला अवसर नहीं है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर लालबहादुर शास्त्री सरकार , इंदिरा गांधी सरकार , मोरारजी देसाई सरकार , पीवी नरसिम्हा राव सरकार , राजीव गांधी सरकार और अटल बिहारी वाजपेई सरकार के भी खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाये गए थे। इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ तो सर्वाधिक 15 बार अविश्वास प्रस्ताव लाये गए। लेकिन ऐसा अभी तक एक ही बार हुआ कि अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार गिर गई। यह 12 जुलाई 1979 को हुआ था। तब जनता पार्टी की सरकार के प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने इस्तीफा दे दिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1989 के आम चुनाव के बाद बनी अपनी सरकार का इस्तीफा ,उसके प्रति भाजपा के समर्थन की वापसी पर लोकसभा में खुद पेश विश्वास प्रस्ताव के पारित नहीं होने पर दिया था जबकि अटल बिहारी वाजपेई ने 1996 में बनी अपनी पहली सरकार के प्रति पेश विश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान ही उसके पारित होने अथवा न होने के पहले ही राष्ट्रपति के पास जाकर इस्तीफा दे दिया था।

चुनावों पर बहस का असर

कर्नाटक विधानसभा के 12 मई को होने जा रहे चुनाव के बाद राजस्थान , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ समेत कुछ राज्यों के भी चुनाव निर्धारित हैं। संभव है कि 17वीं लोकसभा के चुनाव भी , 16 वीं लोकसभा का कार्यकाल 2019 के मध्य में खत्म होने के पहले ही करा लिए जाएँ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव की नोटिस और उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरूद्ध महाअभियोग प्रस्ताव की नोटिस भी अगले आम चुनाव के लिए विपक्षी दलों की रणनीति के तहत सियासी चालों की बिछाई जा रही नई बिसात के अंग माने जा रहे हैं। भारत में पूरब के दो राज्यों में लोकसभा की गोरखपुर और फूलपुर (उत्तर प्रदेश ) तथा अररिया ( बिहार) में उपचुनाव के परिणाम की पूर्व संध्या पर कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने अपने आवास पर विभिन्न दलों के नेताओं को रात्रि भोज पर बुलाया था जिसमें वामपंथी दल के भी प्रतिनिधि उपस्थित थे.

अविश्वास प्रस्ताव एवं महाभियोग का रिश्ता

अविश्वास प्रस्ताव की नोटिस कई पक्षों ने अलग -अलग दी हैं। इनमें आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ तेलुगु देशम ( टीडीपी ) शामिल है। इस नोटिस के पहले टीडीपी प्रमुख एवं मुख्यमंत्री चंद्राबाबू नायडू ने पिछले लोकसभा चुनाव में राजग को दिया समर्थन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में शामिल अपने दो मंत्री , वापस ले लिए. टीडीपी ने कहा है कि वह मोदी सरकार के विरुद्ध किसी के भी पेश अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन करने तैयार है। गौरतलब है कि सबसे पहले आन्ध्र प्रदेश के ही मुख्य विपक्षी दल , वाय एस आर कांग्रेस ने मोदी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव की नोटिस दी थी। बाद में टीडीपी और कांग्रेस समेत कई दलों के सदस्यों की ओर से अविश्वास प्रस्ताव की छह नोटिसें लोकसभा सचिवालय को विधिवत सौंपी गई . लोकसभा के अगले चुनाव संग आंध्र विधानसभा के भी चुनाव हैं.

महाअभियोग प्रस्ताव की यह नोटिस , सुप्रीम कोर्ट के कामकाज को लेकर उसके चार न्यायाधीशों की प्रेस कॉन्फ्रेंस में उठाये गए मुद्दों , भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ एक आपराधिक मामले की सुनवाई करने वाली केंद्रीय जांच ब्यूरो की विशेष अदालत के न्यायाधीश बीड़ी लोया की रहस्यमय मौत के मामले में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की कथित उदासीनता आदि के मद्देनज़र तैयार की गई है। इस बारे में कांग्रेस , राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी , तृणमूल कांग्रेस , मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी , भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी , द्रविड़ मुनेत्र कषगम आदि विपक्षी दलों के बीच पिछले हफ्ते अनौपचारिक बातचीत के बाद नोटिस के मसौदा को अंतिम रूप दिया गया। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य , माजिद मेमोन ने नोटिस का मसौदा तैयार हो जाने की पुष्टि की हैं। माकपा नेता , सीताराम येचुरी ने कहा , " लगता है कि संकट का समाधान अभी तक नहीं हुआ। इसलिए हस्तक्षेप करने की जरुरत है। यह कार्यपालिका की अपनी भूमिका निभाने का वक़्त है।

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा कि नोटिस पर राज्यसभा के 50 सदस्यों ने हस्ताक्षर कर दिए हैं तो सभापति वेंकैया नायडू को इसे विचारार्थ स्वीकार करना होगा। नोटिस में जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ कथित कदाचार के मामलों का उल्लेख किया गया है। इनमें प्रसाद एजुकेशनल ट्रस्ट का वह मामला भी शामिल है जिसमें वांछित अदालती फैसलों के लिए न्यायाधीशों को रिश्वत दिए जाने की सीबीआई जांच और रिश्वतखोरी में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की संलिप्तता का आरोप है। उन पर एक प्रशासनिक आदेश की तारीख में फर्जीवाड़ा करने , एक वकील के रूप में कथित असत्य शपथ -पत्र के आधार पर भूखंड हासिल करने , भूखंड आवंटन रद्द करने के 1985 के प्रशासनिक आदेश के बावजूद उसे सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश बनने के बाद ही 2012 में वापस करने आदि के कथित कदाचार के भी आरोप इस नोटिस में उल्लेखित हैं. जस्टिस दीपक मिश्रा , सुप्रीम कोर्ट के अभी अयोध्या , आधार आदि कई अहम मामलों की सुनवाई कर रही संविधान पीठ के प्रमुख भी हैं , जो अगले आम चुनाव में बड़ा मुद्दा बन सकते हैं।

गौरतलब है कि मुख्य न्यायाधीश मिश्रा के कामकाज के तौर -तरीके को लेकर अपनी आपत्तियों को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने उच्चत्तम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों , जस्टिस जे चेलमेश्वर , जस्टिस रंजन गोगोई , जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ ने गत 11 जनवरी 2018 को प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। जस्टिस चेलमेश्वर , सुप्रीम कोर्ट में वरीयता क्रम में जस्टिस मिश्रा के बाद दूसरे क्रमांक पर हैं. उन्होंने अपने आवास पर बुलाई प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि ' हम चारों इस बात पर सहमत हैं कि इस संस्थान को नहीं बचाया गया तो देश में लोकतन्त्र जिन्दा नहीं रह पाएगा। यह पूछने पर क्या वे जस्टिस मिश्रा के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव लाए जाने के पक्ष में हैं , जस्टिस चेलमेश्वर ने दो टूक कहा था कि यह देश को तय करना है.

जस्टिस चेलमेश्वर ने हाल में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को सम्बोधित अपना एक पत्र सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीशों को भी भेज कर न्यायपालिका के आंतरिक कामकाज में मोदी सरकार के कथित हस्तक्षेप और इस मामले में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के कथित कर्तव्यहीनता को मुद्दा बना कर पूरे प्रकरण को और भी आगे बढ़ा दिया है। इस चिट्ठी में उन्होंने लिखा है , " हम सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों पर कार्यपालिका के बढते अतिक्रमण के सामने अपनी निष्पक्षता और अपनी संस्थागत ईमानदारी खोने का आरोप लग रहा है। कार्यपालिका हमेशा अधीर होती है और कर सकने में सक्षम होने पर भी न्यायपालिका की अवज्ञा नहीं करती है. लेकिन इस तरह की कोशिशें की जा रही हैं कि चीफ़ जस्टिस के साथ वैसा ही व्यवहार हो जैसा सचिवालय के विभाग प्रमुख के साथ किया जाता है."

देखना यह है कि संसद के 29 जनवरी को शुरू बजट सत्र के 9 फरवरी तक चले प्रथम भाग के बाद पांच मार्च से लेकर छह अप्रैल के उत्तरार्ध के अब बचे हुए दिनों में अविश्वास प्रस्ताव की पेश की जा चुकीं नोटिसों और उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरूद्ध महाअभियोग प्रस्ताव की पेश की जाने वाली नोटिस को सत्ता पक्ष कैसे और कब तक टालने में कामयाब होता है। तय है कि इन दोनों नोटिसों की अनुगूंज संसद के बाहर भी अगले आम चुनाव तक सुनाई देगी।

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