बुद्धिजीवियों का प्रधानमंत्री के नाम खुला पत्र
“ताकि एक मासूम बच्ची की क्षत - विक्षत लाश पर बेरहमी और कायरता के खिलाफ एक अंतिम रेखा खींच जाये....”
कठुआ और उन्नाव की घटना पर चिंता जताते हुए हाल में 49 अवकाश प्राप्त नौकरशाहों द्वारा प्रधानमंत्री को लिखे गए एक खुले पत्र में व्यक्त भावना के समर्थन में देश – विदेश के स्वतंत्र बुद्धिजीवियों और विद्वानों ने भी प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखकर इस किस्म की घटनाओं पर गहरा आक्रोश जताया है. प्रधान मंत्री को चिट्ठी लिखने वाले में नोम चोमस्की और कमल मित्र चिनॉय सहित अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध डेढ़ सौ से अधिक बुद्धिजीवी और विद्वान शामिल हैं.
इन विद्वानों द्वारा अंग्रेजी में लिखे गए पत्र का अनुदित और संपादित अंश इस प्रकार है:
प्रधानमंत्री महोदय,
विगत 16 अप्रैल को 49 अवकाश प्राप्त नौकरशाहों द्वारा आपको लिखे गये एक खुले पत्र (https://thewire.in/politics/narendra-modi-open-letter-kathua-unnao) में व्यक्त भावना से सहमति और उसके प्रति अपनी एकजुटता प्रदर्शित करते हुए भारत और विदेशों में शिक्षा और शोध से जुड़े हम स्वतंत्र बुद्धिजीवी आपको यह पत्र लिख रहे हैं.
इन नौकरशाहों और भारत समेत दुनिया के अन्य देशों के नागरिकों के साथ हम कठुआ और उन्नाव की घटनाओं के प्रति गहरा रोष और दुःख जाहिर करना चाहते हैं. हम इन दोनों खौफ़नाक घटनाओं के आरोपियों को संबंधित राज्यों की सत्ता में बैठे लोगों द्वारा बचाव के प्रयासों की घोर निंदा करते हैं. हम इन घटनाओं से लोगों का ध्यान बंटाने के कुत्सित प्रयासों, जो कि आपकी पार्टी के प्रवक्ताओं द्वारा मीडिया में दिए गये बयानों से साफ़ जाहिर होता है, की कड़ी आलोचना करते हैं. और इन सबसे ज्यादा, इन घटनाओं के बारे में आपके द्वारा बरती गयी लंबी चुप्पी, जिसे हाल में पीड़िताओं को न्याय दिलाने के अपर्याप्त और अस्पष्ट आश्वासन के साथ तोड़ा गया, से हम बेहद क्षुब्ध महसूस करते हैं.
कठुआ और उन्नाव की घटनाएं अपवाद नहीं हैं. ये धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को निशाना बनाकर लगातार किये गये हमलों के उस सिलसिले का ही एक हिस्सा हैं जिसमें गौ रक्षकों एवं अन्य तत्वों द्वारा बलात्कार और पीट – पीटकर मार डालने को हिंसा के एक औजार के बतौर इस्तेमाल किया गया. इस किस्म की घटनाओं की फेहरिस्त में उत्तर प्रदेश के दादरी (2015) से लेकर जम्मू – कश्मीर के उधमपुर (2015), छत्तीसगढ़ के बीजापुर और सुकमा (2015 – 16), मध्य प्रदेश के हरदा (2016), झारखंड के लातेहार (2016), गुजरात के ऊना (2016), हरियाणा के रोहतक (2017), दिल्ली (2017), उत्तर प्रदेश के सहारनपुर (2017) और अब इस साल घटित जम्मू – कश्मीर और उत्तर प्रदेश की ताजा घटनाएं शामिल हैं.
इनमें से कई घटनाएं भाजपा – शासित राज्यों में हुई हैं और इन सबों को केंद्र में भाजपा के सत्ता संभालने के बाद अंजाम दिया गया है. ऐसा नहीं है कि हम हिंसा को खालिस आपकी पार्टी और आपकी पार्टी के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों से जोड़ना चाहते हैं. लेकिन इस तथ्य से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि इन घटनाओं का संबंध सत्तारूढ़ दल से है.
समाज के कमजोर एवं वंचित तबकों को सरकारी कार्रवाइयों के माध्यम से सहायता प्रदान करने के बेहद थोड़े सबूत हैं. मामला चाहे आदिवासियों और ख़ानाबदोश जनजातियों को वन्य सम्पदा पर अधिकार दिलाकर प्रोत्साहित करने का हो या फिर निरोधात्मक उपायों के माध्यम से कानून के खुलेआम उल्लंघन को हतोत्साहित करने का, तस्वीर निराशाजनक है. यहां तक कि विगत 12 अप्रैल को इलाहबाद उच्च न्यायालय ने अपनी एक टिप्पणी में कहा : “अगर राज्य की पुलिस का ऐसा ही व्यवहार रहा, तो पीड़ित अपनी शिकायत दर्ज कराने किसके पास जायेगा? यही रवैया अगर लगातार बना रहा, तो हम अपने आदेश में यह लिखने को मजबूर होंगे कि राज्य में कानून – व्यवस्था ढह गयी है.”
हम यह पत्र आपको इसलिए भेज रहे हैं क्योंकि यह हमारा कर्तव्य है. हम यह पत्र इसलिए भी भेज रहे हैं कि हम चुप रहने के दोषी नहीं बनना चाहते. और अंत में, इस पत्र को भेजने का मकसद यह है कि एक मासूम बच्ची की क्षत - विक्षत लाश पर और एक युवती के बलात्कार के बाद बेरहमी और कायरता के खिलाफ अंतिम रूप से एक रेखा खींच जाये.