सेज के पंजे से बाहर निकली जमीन किसानों को वापस चाहिए
उद्योगों के लिए देना चाहती है सरकार
कानपुर से सटे हुए ट्रांस गंगा क्षेत्र के किसानों और उन्नाव के प्रशासन के मध्य लम्बी लड़ाई के बाद इस समय तनावपूर्ण शांति स्थापित हो गई है। दोनों ही पक्ष इस दुविधा में फंसे हैं कि कैसे इस यथास्तिथि से निकल कर भूमि अधिग्रहण समस्या का हल निकाला जाये।
यह युद्ध जिस स्थान पर लड़ा जा रहा है वह कानपुर के पश्चिमी छोर की ओर गंगा पर बने बराज को पार करने के बाद कुछ ही दूर पर सड़क दाहिने ओर मुड़ती है जो आगे चलकर कानपुर–उन्नाव राजमार्ग से मिल जाती है। इसी सड़क पर बाएं हाथ की ओर एक लंबी सी दीवार दिखाई देती हैं यह दीवार करीब 5 किलोमीटर लंबी है। यह दीवार लोहे के सरिये की बनी है और टीन की चादरों से ढकी है जिस पर ट्रांस गंगा सिटी लिखा है। इसमें बीच--बीच में अंदर जाने के कई रास्ते बने हुए हैं। उन्हीं में से एक से अंदर जाने पर एक विशाल क्षेत्र है जिसमें प्लाट कटे हुए हैं और जगह-जगह पर ट्रांस गंगा के बोर्ड लगे हुए हैं। यह एक औद्योगिक क्षेत्र है और इसे उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम ( यू पी एस आई डी सी) द्वारा प्रोन्नत किया जा रहा है।
लेकिन इस समय वहां कोई काम नहीं हो रहा है। प्रोजेक्ट ऑफिस बंद है वहां कोई नहीं है। एक पेड़ के नीचे कुछ किसान बैठे हैं। देखने में उसका कोई महत्व नहीं लगता है लेकिन यही किसानों के संघर्ष का केंद्र है.. और हाल ही में इन किसानों ने एक अभूतपूर्व जीत हासिल की है। यू पी एस आई डी सी के भूमि अधिग्रहण करने के बाद भी इन किसानों ने गेहूं की फसल न केवल बोई, बल्कि उसको काटा भी और उन्नाव जिले के जिलाधिकारी, पुलिस और अन्य हथियार बंद सरकारी दस्तों की मौजूदगी में किसानों ने सपरिवार खड़े होकर पूरी फसल काट ली, समूचा सरकारी अमला चुपचाप खड़ा रहा, हस्तक्षेप करने की हिम्मत नहीं पडी। किसानों और उनके परिवारजनों की कुल संख्या हज़ार के आस पास थी।
इस कार्य को तीन गांव–शंकरपुर सराय, मनमोहन और कन्हैयापुर परगना सिकंदरपुर के किसानों ने संपन्न किया। इन तीन बड़े गांव के अलावा 10-12 छोटे ग्राम भी इसमें शामिल थे। इस क्षेत्र की कुल आबादी 12 से15,000 के बीच है कुल भूमि 1152 एकड यू पी एस आई डी सी (अब से संस्थान) द्वारा आधिग्राहित की गई थी जिसमें कारीब 1000 प्लाट काटे गए थे जिन्हें कानपुर और आस -पास के अधिकांश लोगों ने खरीद लिया है और प्रारम्भिक किश्तें दे दी हैं।
किसान अपनी जमीन वापस मांग रहे हैं
लेकिन इस जीत के साथ ही एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई है। जैसी की किसानों की मांग है कि जो ज़मीन उनसे ले ली गई थी वह उन्हें वापस कर दी जाये। यदि ऐसा हो जाता है तो एक सवाल खड़ा होगा कि भूमि का बंटवारा कैसे किया जाये? कुल भूमि का (30) प्रतिशत ‘विकास’ अर्थात निर्माण में चला गया है जो अब खेती करने लायक नहीं रह गया है। यह भूमि कुल 2800 किसानों की है और बाकी लोग इन ज़मीनों पर काम करते हैं, मजदूर हैं, सभी ने मिलकर ज़मीन जोत ली। लेकिन अब मालिकाने का क्या होगा? अर्थात सरकार से संघर्ष में सभी शामिल थे और खेती करने में भी। इसलिए उन सब़ का भी भूमि पर उतना ही अधिकिर है जितना उनका जिनकी भूमि निर्माण में नहीं चली गयी है। अब सवाल यह है कि बंटवारा कैसे हो?
ज़मीनी विवाद सौ फीसदी होगा, ऐसा कहना किसानों के नेता हरीन्द्र निगम का है ..
जिला प्रशासन की दुविधा कोई कम नहीं है। हरिन्द्र निगम ने जिलाधिकारी के समक्ष यह मांग रखी कि हमारी भूमि हमें वापस कर दी जाये। जिलाधिकारी ने पूछा कि जो राशि आपको मुआवजे में दी गयी है उसकी वापसी कैसे होगी.? निगम ने कहा कि जैसे आपने पैसे दिए हैं वैसे ही यह वापस भी होगी।
लेकिन यह हल जिलाधिकारी को स्वीकार नहीं है। क्योंकि उनकी सोच है कि यदि यह ज़मीन वापस करनी पड़ी तो वर्ष 2002 से जो पैसा इस परियोजाना पर खर्च किया गया है वह बर्बाद हो जायेगा और जितनी अनियमितताएं इस योजना में रही है उससे (20-30) अधिकारी के नप जाने का ख़तरा भी है। ये सभी भ्रष्टाचार में पकडे जायंगे। एक आईएएस दूसरे को जेल, नहीं भेजना चाहेगा इसलिए उन्नाव प्रशासन एक दुविधा में है कि क्या करे? इस परियोजना पर कई सौ करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, इसकी जवाबदेही इन अधिकारियों की ही बनती है।
दोनों पक्षों को परिस्थितयां समझौते की ओर जाने के लिए मजबूर कर रही हैं, लेकिन आगे क्या होगा इसे समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि यह सब घटनाक्रम इस बिंदु तक कैसे पहुंचा। ऐसा क्यों हुआ कि सब कानूनों के बावजूद यह समूची प्रक्रिया ऐसे स्थान पर पहुंच गई है जहां से उसे सार्थक रास्ते पर लाना लगभग असंभव हो गया है।
मामले की शुरुआत
इसकी शुरुआत वर्ष 2002 में हुई थी। उस समय देश में विशेष आर्थिक परिक्षेत्र (एस ई जेड) योजना का बोलोबाला था। हर राज्य इस प्रकार के निर्यात क्षेत्र बनाने में लगा हुआ था। उत्तर प्रदेश ने भी तीन ऐसे क्षेत्र चुने थे इनमें से एक कानपुर से सटा क्षेत्र चुना गया और ट्रांसगंगा औद्योगिक क्षेत्र का जन्म हुआ। वर्ष 2002 में (1894) के भूमि अधिग्रहण क़ानून के अंतर्गत धारा (17 (4)) के तहत अति आवश्यक और तुरंत ज़रूरत दिखाते हुए भूमि अधिग्रहण का नोटिस जारी किया। फिर 2005 में इस समस्त भूमि को उत्तर प्रदेश राज्य औद्यगिक विकास निगम के नाम कर दिया गया। यह काम कागजों में ही हुआ और किसी किसान को इसका पता नहीं चला। यह सभी कार्य देश हित में किया जाना आवश्यक समझा गया और जितनी ज़रूरत थी उतने झूठ बोले गए। इस बहुफसली भूमि को बंजर दिखाया गया, मंदिरों और ट्रस्ट की भूमि को भी अधिग्रहित कर लिया गया। इस क्षेत्र में (10-12) ट्रस्ट हैं और इनके पास (50-60) बीघा भूमि है। सभी किसानों को कागजों पर बेदखल कर दिया गया और कहा गया कि देश़हित के लिए यह आवश्यक है।
किसानों को मालूम ही नहीं कि उनकी भूमि अब उनकी नहीं रह गयी है बल्कि उत्तर प्रदेश औद्योगिक विकास संस्थान की हो चुकी है। व्विभिन्न किसानों से बातचीत से यह मालूम हुआ, कि जब़ एक किसान ने जमानत के लिए अपने कागज़ दाखिल किये तभी मालूम हुआ कि यह भूमि उनकी नहीं रह गई है। संघर्ष के अलावा और कोई चारा नहीं रह गया था। उस समय तक कोई मुआवजा नहीं दिया गया था। वर्ष 2006 से मुआवजे के लिए आंदोलन शुरू हुआ और मांग रखी गई कि भूमि वापस की जाये। मायावती सरकार के आने पर मुआवजे की राशि निर्धारित की गई। यह राशि 8 लाख रुपये प्रति एकड़ निर्धारित की गयी है लेकिन पैसा नही दिया गया था।
वर्ष 2005 में राज्य ने विशेष औद्यगिक क्षेत्र की योजना को समाप्त कर दिया और इस समस्त भूमि को उत्तर प्रदेश औद्यगिक विकास निगम के नाम स्थानांतरित कर दिया, जो अपने आप में क़ानून का उल्लंघन था। मामले ने दूसरा मोड़ तब लिया जब यह अवार्ड कमिश्नर लखनऊ ( उन्नाव लखनऊ कमिशनरी का हिस्सा है) के पास अनुमोदन के लिए भेजा गया। उस समय कमिश्नर संयोग से विजय शंकर पाण्डे थे, ये वही पाण्डे है जिनके नेतृत्व में आईएएस के सुधारवादी गुट 1990 के दशक के अंत में आईएएस एसोसिएशन में तीन सर्वधिक भ्रष्ट अधिकारियों को चिन्हित करने के लिए वोटिंग करवाई थी। पाण्डे ने मामले की तह तक जाकर सरकारी गैर कानूनी तौर तरीकों पर रोक लगाने की कोशिश की और भू अधिग्रहण की सारी कोशिशों को बड़ा धक्का लगा।
पत्र में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को गैर कानूनी बताया
आयुक्त लखनऊ ने अपने 17.06.2008 के पत्र में जिलाधिकारी उन्नाव को यह सूचित किया कि यू पी एस आई डी सी के नाम स्थानांतरित की गई भूमि रद्द कर दी जाये और यह पूछा कि क्यों और किस आधार पर यह किया गया है और कौन इसका उत्तरदायी है। इस भूमि को काश्तकारों के नाम दर्ज कर तत्काल आयुक्त को तुरंत दूरभाष अथवा फैक्स द्वारा सूचित करने का आदेश दिया।
इसी पत्र में इस बात को साफ किया गया है कि शुरू में विशेष आर्थिक परिक्षेत्र (एस ई जेड) में सरकार द्वारा अधिग्रहण की प्रक्रिया बिलकुल गैर कानूनी थी। केंद्र सरकार की नीति के अनुसार एस ई जेड के लिए भूमि निजी विकासकर्ताओं द्वारा ही खरीदी जानी थीं न कि सरकार अथवा उसकी किसी एजेंसी द्वारा। जहां तक प्रतिकर अर्थात मुआवजे का सवाल है, इस पर पत्र ने यह स्पष्ट किया कि इसका मूल प्रस्ताव इस आशय से वापस किया गया था कि धारा 4 की जारी विज्ञप्तियों की अंतिम प्रकाशन तिथि से तीन वर्ष के अंदर धारा4 के प्रकाशन से धारा 6 के मध्य, एक वर्ष की समय सीमा तक भू अर्जन की धारा (11ए) के अंतर्गत समस्त कार्यवाही स्वत: बाधित हो जाती है, इसलिए प्रतिकर पर विचार करना संभव नहीं है’
इस पत्र व्यवहार में यह भी साफ किया गया कि एस ई जेड के लिए भूमि का अधिग्रहण भी क़ानून सम्मत नहीं था। इस पर बनाए 18.05.2007 किए नियम के अनुसार एस ईजेड के लिए भूमि “कम्पलसरी लैंड अक्क़ुइज़ीशन पर एस ई जेड न स्थापित करने की नीति के तहत निजी विकासकर्ताओं द्वारा स्वयं भूमि की व्यवस्था की जायेगी“ यह भी साफ किया गया कि राज्य सरकार केंद्र सरकार के नियमों को मानेगी। अत: यदि यह निजी-राज्य की भागीदारी से बनेगी तो एक प्रकार के नियम लागू होंगे और यदि संयुक्त उपक्रम के अंतर्गत होगी तो दूसरे प्रकार के नियम लागू होंगे।
लेकिन जिलाधिकारी, उन्नाव ने इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। उन्हें एक फिर 8.8.2008 को एक बार और उत्तर देने व की गई कार्यवाही की रिपोर्ट करने को कहा गया। लेकिन जिलाधिकारी ने इन सभी पत्रों को दबा दिया और सरकारी अमला विजय शंकर पाण्डे के स्थानान्तरण का इंतज़ार करने लगा। कोई कार्यवाही नहीं की गई।
वर्ष 2010 में आयुक्त के बदलने के बाद ही इस अवार्ड का अनुमोदन प्राप्त किया गया। पूर्व आयुक्त के पत्र पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी। इसके अनुसार नए मालिक अर्थात यू पी एस आई डी सी को ज़मीन और किसानों को मुआवजा देना था। इसकी दर 8 लाख प्रति रुपये प्रति एकड़ निर्धारित थी लेकिन किसानों ने इसका पुन: विरोध किया। हरिन्द्र निगम के अनुसार वर्ष 2007 में तय किये गए दर के अनुसार वर्ष 2012-13 में भुगतान करने का क्या तुक है? ऐसे समय जबकि रुपये का मूल्य घट चुका है इसलिए यह राशि स्वीकार नहीं की जा सकती है।
किसानों के साथ धोखाधड़ी
उसके तुरंत बाद ही भू अधिग्रहण बिल आ गया और समूचे देश में (1 जनवरी 2014) से लागू हो गया लेकिन इसे लागू करने के स्थान पर एक नई योजना एस आई डी सी ने अपनायी। उन्होंने एक ऐसे राजनीतिक कार्यकर्ता को इस प्रक्रिया में शामिल कर दिया जिस पर किसान भी कुछ हद तक विश्वास करते थे जिन किसानों ने हमसे बात की उन्होंने इस व्यक्ति का नाम न बताने आग्रह किया है। इसलिए हम भी उसका नाम नहीं लेंगे। इन सज्जन ने एक कमेटी गठित की जिसमें 31 सदस्य थे और एक अध्यक्ष था, इसके लम्बे चौड़े नियम बनाये गए और एक समझौते का पत्र तैयार किया गया जिसके अनुसार, जैसा बताया गया कि प्रत्येक किसान को चार बार 7-7 लाख रुपये दिए जायंगे। लेकिन यह समझौता किसी को दिखाया नहीं गया था वर्ष 2014 में पहली किश्त 7 लाख रुपये दे दी गई, लेकिन उसके बाद किश्त नहीं आने पर जन सूचना अधिकार के तहत जब जानकारी मांगी गई तो यह साफ हुआ कि चार बार 7-7 लाख रुपये देने की बात उस दस्तावेज में कही नहीं है। उसमें केवल एक बार ही 7 लाख देने की चर्चा है किसानों के साथ धोखा हुआ है यह बात उनकी समझ में आ गई और आंदोलन दोबारा शुरू कर दिया, जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं।
इस समूची प्रक्रिया में शासन तंत्र और उसके विभिन्न संस्थानों ने सभी नियमों/क़ानून को ताक पर रख दिया। पहले तो एसईजेड निर्माण की जो प्रक्रिया अपनाई गयी वह केंद्र सरकार द्वारा एसईजेड पर जारी निर्देशिका के विरोध में है भूमि को निजी विकासकर्ताओं ने विकसित करना था न कि राज्य अथवा उसके किसी अन्य संस्थान ने ; जब एक बार एसईजेड योजना को समाप्त कर दिया गया तो इस भूमि को किसानों को वापस कर देनी थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया, बल्कि नियम विपरीत जाकर उसका भू उपयोग बदल दिया गया.. प्रारम्भ में भूमि का अधिग्रहण यह कहकर किया गया था कि राष्ट्र हित में इसे त्वरित रूप से अधिग्रहित कियाजाना है। बाद में भी इसी प्रकार की दलीलें दी गई जो विभिन्न भूमि अधिग्रहण के कानूनों में दे गई हैं।
जब एक बार भू उपयोग एसईजेड से बदल कर सामान्य औद्योगिक क्षेत्र का कर दिया गया है, तो क्या समस्त राष्ट्र हित में परिवर्तन आ गया था? किसान आज यह सवाल खड़े कर रहे हैं।
इस प्रकार की झूठी दलीलें देकर किसानों की ज़मीन को हथियाना इस बात का संकेत है कि सरकार की नज़र में किसान और उसकी खेती का कोई महत्व नहीं है। किसी भी तरह से किसान की ज़मीन लेनी है चाहे उसके उद्योग में कोई उपयोग हो सकता है अथवा नहीं। जिस तरीके से भूमि को अधिग्रहित किया जाता है उससे लम्बे समय से इस विवाद के लिए भूमि तैयार की जाती है। जहां-जहां भूमि अधिग्रहित की गई है उन सभी स्थानों पर यह देखने में आया है। इस प्रक्रिया में पैसे की बर्बादी बड़ी मात्र में की गई है। आज उस भ्रष्टाचार के खुल जाने के बाद, समस्त प्रशासन इसका किसानों से मिलकर रास्ता निकालने की कोशिश कर रहा है ताकि उनकी चोरियां छुपी रह जाये।
किसानों की मांगे
- किसानों ने जिलाधिकारी को पत्र लिखकर यह मांग की है कि किसानों की भूमि को वापस उनको नामांतरित किया जाये; विसंगितयों की जांच आयुक्त के पत्रों के आलोक में की जाये
- जिलाधिकारी की इस दलील कि पुरानी बातों को भूलकर नए सिरे से समस्या को सुलझाने की कोशिश करने के लिए यह ध्यान में रखा जाये कि किसान की भूमि को गंभीरतापूर्वक विचार करके ही अधिग्रहित करने की बात सोची जाये
- दोषी अधिकारियों को दण्डित किया जाये और किसानों पर दर्ज मुकदमों को पास लिया जाये। किसानों और सरकार के बीच शीघ्र ही बातचीत शुरू होने की सम्भावना है। कई बार किसानों द्वारा ज़मीन पर जीती लड़ाई वार्ताओं में हार में बदल जाती है। इस बार देखना है कि क्या होता है।