मध्यप्रदेश में आदिवासी उभार से राजनीतिक बेचैनी

छात्रसंघ की 162 सीटों पर जीत दर्ज की है

Update: 2018-09-20 11:58 GMT

मध्यप्रदेश में “जयस” यानी “जय आदिवासी युवा शक्ति” जैसे संगठन की सक्रियता दोनों पार्टियों को बैचैन कर रही है. डेढ़ साल पहले आदिवासियों के अधिकारों की मांग के साथ शुरू हुआ यह संगठन आज ‘“अबकी बार आदिवासी सरकार”’ के नारे के साथ 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है. जयस द्वारा निकाली जा रही “आदिवासी अधिकार संरक्षण यात्रा” में उमड़ रही भीड़ इस बात का इशारा है कि बहुत ही कम समय में यह संगठन प्रदेश के आदिवासी सामाज में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहा है. जयस ने लम्बे समय से मध्यप्रदेश की राजनीति में अपना वजूद तलाश रहे आदिवासी समाज को स्वर देने का काम किया है. आज इस चुनौती को कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियां महसूस कर पा रही हैं .

मध्यप्रदेश में आदिवासियों की आबादी 21 प्रतिशत से अधिक है. राज्य विधानसभा की कुल 230 सीटों में से 47 सीटें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं. इसके अलावा करीब 30 सीटें ऐसी मानी जाती हैं जहां पर्याप्त संख्या में आदिवासी आबादी है. 2013 के विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में भाजपा को 32 तथा कांग्रेस को 15 सीटों मिली थी.

2013 में ही डॉ हीरा लाल अलावा द्वारा जय आदिवासी युवा शक्ति’ (जयस) का गठन किया गया था जिसके बाद इसने बहुत तेजी से अपने प्रभाव को कायम किया है. पिछले साल हुये छात्रसंघ चुनावों में जयस ने एबीवीपी और एनएसयूआई को बहुत पीछे छोड़ते हुये झाबुआ, बड़वानी और अलीराजपुर जैसे आदिवासी बहुल ज़िलों में 162 सीटों पर जीत दर्ज की थी. आज पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों अलीराजपुर, धार, बड़वानी और रतलाम में “जयस” की प्रभावी उपस्थिति लगातार है यह क्षेत्र यहां भाजपा और संघ परिवार का गढ़ माना जाता था.

“जयस” की विचारधारा आरएसएस के सोच के खिलाफ है, ये खुद को हिन्दू नहीं मानते है और इन्हें आदिवासियों को वनवासी कहने पर भी ऐतराज है. खुद को हिंदुओं से अलग मानने वाला यह संगठन आदिवासियों की परम्परागत संस्कृति के संरक्षण और उनके अधिकारों के नाम पर आदिवासियों को अपने साथ जोड़ने में लगा है.

यह संगठन आदिवासियों की परम्परागत पहचान, संस्कृति के संरक्षण व उनके अधिकारों के मुद्दों को प्रमुखता उठता है.

“जयस” का मुख्य जोर 5वीं अनुसूचि के सभी प्रावधानों को लागू कराने में हैं। भारतीय पांचवी अनुसूची की धारा 244(1) के तहत आदिवासियों को विशेषाधिकार दिए गये हैं जिन्हें सरकारों ने लागू नहीं किया है. मध्यप्रदेश में आदिवासी की स्थिति खराब है, शिशु मृत्यु और कुपोषण सबसे ज्यादा आदिवासी बाहुल्य जिलों में देखने को मिलता है। सरकार के नीतियों के कारण आदिवासी समाज अपने परम्परागत संसाधनों से लगातार दूर होता गया है, विकास परियोजनाओं की वजह से वे व्यापक रूप से विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर हुए हैं और वे लगातार गरीबी व भूख के दलदल में फंसते गये हैं. भारत सरकार द्वारा जारी ‘‘रिर्पोट आफ द हाई लेबल कमेटी आन सोशियो इकोनामिक, हैल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस आफ ट्राइबल कम्यूनिटी 2014” के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर आदिवसी समुदाय में शिशु मृत्यु दर 88 है जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 113 है, इसी तरह से राष्ट्रीय स्तर पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 129 है वही प्रदेश में यह दर 175 है, आदिवासी समुदाय में टीकाकरण की स्थिति चिंताजनक है. रिपोर्ट के अनुसार देश में 12 से 23 माह के बच्चों के टीकाकरण की दर 45.5 है जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 24.6 है. इसी तरह से एक गैर सरकारी संगठन बिंदास बोल संस्था द्वारा जारी किये गये अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश के आदिवासी जिलों के करीब 40 प्रतिशत बच्चे अभी से स्कूल नहीं जा रहे हैं इसका प्रमुख कारण यह है कि पिछले कुछ सालों आदिवासी क्षेत्रों में स्कूलों की संख्या में करीब 18 प्रतिशत की बढ़ोतरी तो हुयी है लेकिन मानकों के आधार पर यहां अभी भी करीब 60 प्रतिशत शिक्षकों की कमी है.

दूसरी तरफ स्थिति ये है कि पिछले चार सालों के दौरान मध्य प्रदेश सरकार आदिवासियों के कल्याण के लिए आवंटित बजट में से 4800 करोड़ रुपए खर्च ही नहीं कर पायी है.2015 में कैग द्वारा जारी रिपोर्ट में भी आदिवासी बाहुल्य राज्यों की योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर सवाल उठाये गये थे. उपरोक्त परिस्थितियों ने ‘जयस' जैसे संगठनों के लिये जमीन तैयार करने का काम किया है. इसी

परिस्थिति का फायदा उठाते हुये 'जयस' अब आदिवासी बाहुल्य विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने की तैयारी में है. इसके लिये वे आदिवासी समूहों के बीच एकता की बात कर रहे हैं जिससे राजनीतिक दबाव समूह के रूप में चुनौती पेश की जा सके. डा. अलावा कहते है कि “जयस एक्सप्रेस का तूफानी कारवां अब नही रुकने वाला है.” 'जयस' ने 29 जुलाई से आदिवासी अधिकार यात्रा शुरू की है जिसमें बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय के लोग जुड़ भी रहे हैं. अगर वे अपने इस गति को बनाये रखने में कामयाब रहे तो मध्यप्रदेश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है.

आदिवासी बहुल जिलों में ‘जयस’ की लगातार बढ़ रहे प्रभाव को देखते हुये कांग्रेस और भाजपा दोनों के रणनीतिकार उलझन में हैं. स्थिति सुधारने के लिये भाजपा पूरा जोर लगा रही है, इसके लिये शिवराज सरकार ने 9 अगस्त आदिवासी दिवस को आदिवासी सम्मान दिवस के रूप में मनाया है जिसके तहत आदिवासी क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर कार्यक्रम हुये हैं. इस मौके पर धार में आयोजित एक कार्यक्रम में खुद मुख्यमंत्री ने कई सारी घोषणायें की हैं जिसमें राज्य के कुल बजट का 24 फीसद आदिवासियों पर ही खर्च करने,आदिवासी समाज के लोगों पर छोटे-मोटे मामलों के जो केस हैं उन्हें वापस लेने, जिन आदिवासियों का दिसंबर 2006 से पहले तक वनभूमि पर कब्जा है उन्हें सरकार ने वनाधिकार पट्टा देने, जनजातीय अधिकार सभा का गठन करने जैसी घोषणायें की हैं. इस दौरान उन्होंने “जयस” पर निशाना साधते हुये कहा कि “कुछ लोग भोले-भाले आदिवासियों को बहका रहे हैं, पर उनके बहकावे में आने की जरूरत नहीं है”.”

भाजपा द्वारा जयस के पदाधिकारियों को पार्टी में शामिल होने का ऑफर भी दिया जा चूका है जिसे उन्होंने ठुकरा दिया गया है. डॉ हीराराल अलावा ने साफ़ तौर पर कहा है कि “भाजपा में किसी भी कीमत पर शामिल नहीं होंगे क्योंकि भाजपा धर्म-कर्म की राजनीति करती है, उनकी विचारधारा ही अलग है वे आदिवासियों को उजाडऩे में लगे हैं.”

वहीँ कांग्रेस भी आदिवासियों को अपने खेमे में वापस लाने के लिये रणनीति बना रही है. इस बारे में कार्यकारी अध्यक्ष बाला बच्चन ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को एक रिपोर्ट सौंपी है, जिसमें पार्टी से बीते चुनावों से दूर हुए इस वोट बैंक को वापस लाने के बारे में सुझाव दिए हैं. कांग्रेस का जोर आदिवासी सीटों पर वोटों के बंटवारे को रोकने की है. वो छोटे-छोटे दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहती है. अगर कांग्रेस ‘गोंडवाना पार्टी’ और ‘जयस” को अपने साथ जोड़ने में कामयाब रही तो इससे भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. हालांकि ये आसन भी नहीं है, कांग्रेस लम्बे समय से गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से समझौता करना चाहती है लेकिन अभी तक बात बन नहीं पायी है उलटे गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने शर्त रख दी है कि ‘उनका समर्थन कांग्रेस को तभी मिलेगा जब उसका सीएम कैंडिडेट आदिवासी हो.’

मध्यप्रदेश की राजनीति में आदिवासी चेतना का यह उभार नये समीकरणों को जन्म दे सकता है और इसका असर आगामी विधानसभा चुनाव पर पड़ना तय है. बस देखना बाकी है कि भाजपा व कांग्रेस में से इसका फायदा कौन उठाता है या फिर इन दोनों को पीछे छोड़ते हुये सूबे की सियासत में कोई तीसरी धारा उभरती है.

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