मोहन भागवत का नया ढंग, पुराना राग

नागपुर में प्रणव मुखर्जी से कहा था ,संघ जो है वहीं रहेगा

Update: 2018-09-22 16:15 GMT

हम लेखक राजनीतिज्ञों द्वारा कहीं जाने वाली बातों की व्याख्या करते हैं। उस व्याख्या के आधार में राजनीतिज्ञों द्वारा समय समय पर कहीं गई बातों में अंतर्विरोध की शिनाख्त करते हैं। मसलन पाकिस्तान बनने के बाद जिन्ना ने इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान की संविधानिक सभा में कहा , ‘आप स्वतंत्र हैं ; आप स्वतंत्र हैं अपने मंदिरों में , अपनी मस्जिदों में जाने के लिए और किसी भी पूजा स्थल में, इस पाकिस्तान राज्य में जाने के लिए ;आप किसी भी धर्मं , जाति और पंथ के हो सकते हैं; लेकिन इसका राज्य से कोई लेना देना नहीं है.....हम ऐसे समय में हैं जहां कोई भेदभाव नहीं है , एक और दुसरे समुदाय में कोई अन्तर , किसी भी जाति और पंथ में नहीं है. हॉ, लोग इस बुनियादी सिद्धांत से शरू कर रहे हैं कि हम सब नागरिक हैं और एक राज्य के बराबर के (ही) नागरिक हैं......इसे अपने सम्मुख अपने आदर्श के तौर पर रखेंगे और आप देखेंगे कि समय बीतने के साथ ही हिन्दू हिन्दू नहीं रह जायंगे और मुस्लिम मुस्लिम नहीं रह जायंगे , धार्मिक मायने में नहीं क्योंकि वह तो एक व्यक्तिगत मामला है , लेकिन राजनैतिक लिहाज़ से राज्य के नागरिक के बतौर.” लेकिन समय और स्थान के स्थान पाकिस्तान के कायदे आजम जिन्ना अलग अलग विचार दोहराते हैं। पारसियों के एक शिष्टमंडल से जून १९४८ में बातचीत में जिन्ना ने यह दोहराया कि अन्य अल्पमत के समूहों की तरह उन्हें भी बराबरी का नागरिक माना जायगा और आपको सभी अधिकार और जिम्मेवारियां प्राप्त होंगी जब तक आप पाकिस्तान के प्रति वफादार रहते हैं . अल्पमत के समूहों को न केवल शब्दों से, बल्कि अपने कृत्यों से भी यह दिखाना होगा की वह वास्तव में वह वफादार हैं और उनको चाहिए कि बहुमत समुदाय भी यह महसूस करे कि वे सही में पाकिस्तान ( इस्लामिक राष्ट्र) के वफादार हैं और वे पाकिस्तान ( इस्लामिक राष्ट्र) के सच्चे नागरिक हैं.’ ऐसे बहुत सारे उद्दरणों से जिन्ना के समय समय पर दिए गए अंतर्विरोधी विचार भरें पड़े हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने संघ की तीन दिवसीय व्याख्यानमाला 'भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण' पर जो अपने विचार व्यक्त किए हैं, उन्हें बतौर संगठन संघ के ख्यालों और बतौर प्रमुख उनके विचारों के अंतर्विरोधों को यहां रेखांकित किया जा सकता है। लेकिन बतौर लेखक यह महसूस होता है कि पिछले साढ़े चार सालों में संघ प्रमुख ने सबसे ज्यादा अपनी कौशलता इस बात में सिद्ध की है कि कैसे उन्हें अपनी बातों को कहने का ढंग बदल देना चाहिए। संचार के सामान्य सिद्धांतकार भी जानते हैं कि बदले हुए ढंग में कहे जाने से पुरानी बातें नई लगने लगती है।यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वभाव से उदार होना और उदार दिखने की पैकेजिंग करना उदारता की अलग अलग तरह की गंध छोड़ती है।नागपुर में उन्होने कहा था संघ जो है वहीं रहेगा।

मोहन भागवत द्वारा कहीं गई बातों में अंतर्विरोधी लगने वाली भाषा को समझने के बजाय उनके कहने में जो एक तरह का नया ढंग दिखाई दे रहा है उसे पढ़ने की कोशिश की जानी चाहिए।

पहली बात जब वे कहते हैं कि हिन्दू राष्ट्र की कल्पना मुस्लिमों के बगैर नहीं की जा सकती है। .जिस दिन हम कहेंगे कि हमें मुसलमान नहीं चाहिए, उस दिन हिन्दुत्व नहीं रहेगा।

मोहन भागवत यहां संघ की खास भाषा शैली में हिन्दू और हिन्दुत्व का एक साथ जरुर इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन वे इनके बीच के फर्क को भी जाहिर कर रहे हैं। सामान्य जीवन में जिन्हें हिन्दू कहा जाता है और राजनीतिक अवधारणा के तौर पर हिन्दूत्व के बीच के फर्क को पढ़ने की कोशिश की जा सकती है। यदि जिन्ना के उद्धरणों का इस्तेमाल करें तो जिन्ना ने यह भी साफ कर दिया था कि इस्लाम , सार्वजनिक जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा। इसे इस तरह भी पढ़ा जा सकता है कि अपनी उपासना पद्धति के आधार पर वे मुसलमान है लेकिन उनकी राष्ट्रीयता हिन्दू हैं। मोहन भागवत ने नागपुर में प्रणव मुखर्जी वाले कार्यक्रम में कहा था कि – भारत में जन्मा हर व्यक्ति भारतीय है।

इसे थोड़ा और स्पष्ट करने के लिए उनके एक दूसरे मत को यहां देखा जा सकता हैं। जैसे वे संघ और राजनीति पर विचार प्रगट करते हुए कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वंय सेवक के सदस्यों को किसी एक पार्टी के लिए काम करने के लिए नहीं कहा जाता है। संघ के लोग यदि एक पार्टी में ज्यादा है तो यह हमारे लिए सोचने का विषय नहीं है बल्कि उनके लिए सोचने का विषय हैं जिनसे वे नहीं जुड़ते हैं।हमने एक नीति का समर्थन जरूर किया और हमारी नीति का समर्थन करने का लाभ जैसे हमारी शक्ति बढ़ती है वैसे राजनीतिक दलों को मिल सकती है, जो इसका लाभ ले सकते हैं वो ले जाते हैं। दरअसल यह संघ के उसके उद्देश्य को कई वाक्यों में दोहराया गया है जिसमें ये कहा गया है कि राजनीति का हिन्दूकरण करना होगा और हिन्दू का सैन्यकरण करना होगा। संघ देश की समस्त राजनीतिक प्रक्रिया का हिन्दूकरण करना चाहता है ।और यही बात मोहन भागवत संघ और राजनीति के बारे में प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं। संघ पॉच साल की सरकार बनाने के उद्देश्य से सक्रिय नहीं है वह एक देश के उस मिजाज को बदल देने के लिए सक्रिय है जो कि आजकी तारीख में लोकतंत्र, संविधान, घर्मनिरपेक्षता और समानता की भाषा में बात करने का आदि हैं। भागवत को पढ़े तो यह स्पष्ट होता है कि राजनीति का हिन्दूकरण करने के उद्देश्य को पुरा करने में ही हिन्दू राष्ट्र के स्थायित्व को सुनिश्चित किया जा सकता है। नरेन्द्र मोदी के साढ़े चार वर्ष के कार्यकाल के बाद संघ प्रमुख का आगे का कार्यक्रम संसदीय राजनीति में हिन्दूत्व की तरफ पार्टियों के बढ़ते झुकाव की गति को ही तेज करना है और यह गति राजनीति के हिन्दूकरण करने के बाद नारे के अगले उद्देश्य को पुरा करने से ही होता है। वह है हिन्दू का सैन्यकरण करना होगा। राजनीति में हिन्दूकरण और हिन्दू का सैन्यकरण करने से ही हिन्दुत्व की राजनीतिक अवधारणा पुरी होती है। इसीलिए मोहन भागवत मुक्त की बात नहीं करते हैं। भाजपा पांच साल की सत्ता के लिए बनी पार्टी है जो राजनीति के हिन्दूकरण की प्रक्रिया को तेज करने में हर स्तर पर सहयोग करती है और भाजपा कॉंग्रेस मुक्त की बात कर सकती है. लेकिन संघ के लिए कॉग्रेंस का होना जरुरी है क्योंकि वह समस्त राजनीति के हिन्दूकरण करने की प्रक्रिया की कड़ी के रुप में भरोसेमंद दिखती है।इसीलिए संघ युक्त की बात करता है। यह उसकी उदारता नहीं उसकी जरुरत है।इसी हिन्दूकरण की प्रक्रिया का अगला हिस्सा मोहन भागवत द्वारा आरक्षण का समर्थन करना है। बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में उन्होने आरक्षण की समीक्षा की बात की थी। इस तरह सामाजिक स्तर पर हिन्दूकरण और राजनीति के हिन्दूकरण की प्रक्रिया एक साथ जुड़ती है।
 

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