भारत के चुनाव में रुस की क्या भूमिका होगी

राजनीतिक जरुरत है जो मतदाताओं को दिमागी रुप से नियंत्रित कर सके

Update: 2018-10-09 12:28 GMT

दुनिया के किसी भी देश में होने वाले चुनाव अब केवल उसी देश के मतदाताओं व मशीनरी द्वारा लड़े जाने वाले चुनाव नहीं रह गए हैं। एक देश में होने वाले राजनीतिक मतदान में दुनिया भर की मशीनरी शामिल हो रही है।अमेरिका में 2016 के राष्ट्रपति के चुनाव में रुस की सक्रियता के आरोप लगे थे। राष्ट्रपति ट्रंप की विरोधी हेलरी क्लिंटन ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों और तथ्यों के साथ यह आरोप लगाया था कि उन्हें चुनाव में हराने के लिए रुस ने सक्रिय भूमिका अदा की है।अब राष्ट्रपति ट्रंप ने आरोप लगाया है कि अमेरिका में आने वाले राष्ट्रपति के चुनाव के मामले में चीन दिलचस्पी ले रहा है और चुनाव प्रक्रिया में घुसपैठ कर चीन ट्रंप को हराना चाहता है। ट्रंप ने यह आरोप संयुक्त राष्ट्र की बैठक में लगाया। इससे पहले भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में राष्ट्रपति के 2015 के चुनाव में महिन्दा राजपक्ष ने स्पष्ट आरोप लगाया था कि कैसे पड़ोसी देश की खुफिया एजेंसी के अलावा अन्य देशों की सरकारों ने उन्हें हराने के लिए सक्रिय थी।

गरीब और अमीर देश का फर्क मिटा

अंमीर देशों द्वारा गरीब देशों में लोकतंत्र के नाम पर होने वाले चुनावों में घुसपैठ की घटनाएं आम रही है। जार्ज फर्नाडिस ने अपने एक सार्वजनिक बयान में यह साफ साफ कहा था कि 1967 में चुनाव में कोई भी ऐसी पार्टी नहीं थी जो कि बिना विदेशी मदद के चुनाव मैदान में उतरी हो।उस विदेशी मदद की जांच के लिए एक संसदीय समिति भी बनी थी लेकिन उसकी रिपोर्ट तब से दबी पड़ी है।विदेशी मदद का अर्थ यहां इस रुप में समझा जा सकता है कि चुनाव लड़ने वाली पार्टियों को अमीर देशों से पैसा मिला। लेकिन यहां मदद शब्द को उस अर्थ में नहीं लिया जा सकता है जैसे कई स्तरों पर एक देश दूसरे देश की मदद करते हैं और यह सबकी जानकारी में होता है। चुनाव में गुपचुप मदद का मतलब अमीर देश की राजनीतिक-आर्थिक शक्तियों द्वारा गरीब देशों की राजनीतिक पार्टियों के जरिये उस देश की सार्वभौमिकता और स्वतंत्रता में हस्तपेक्ष का प्रयास होता है।एक तरह से उसकी नीतियों में घुसपैठ कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए अमीर देशों द्वारा पैसा खर्च करने का एक व्यापार होता है।

वैश्वीकरण के बाद अमीर देश भी नहीं बचे

वैश्वीकरण ने किसी देश के चुनाव को वैश्विक चुनाव में तब्दील कर दिया है। किसी भी देश के चुनाव के नतीजों का एक ही साथ बहुत सारे देश खुद पर असर होने की आशंका करते है। या फिर नतीजों से एक उम्मीद भी लगाते हैं। वैश्वीकरण के साथ ही अमीर देशों के बीच भी गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी है। इस हालात में अमीर देशों द्वारा एक दूसरे के राजनीतिक क्षेत्रों में अपना असर बढ़ाने की कोशिशें देखी जा रही है। इसी के नतीजे के तौर पर अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश को भी यह आरोप लगाना पड़ रहा है कि उसके देश के चुनाव में दूसरे शक्तिशाली देश घुसपैठ कर रहे हैं। चुनाव अब एक देश की आंतरिक राजनीतिक गतिविधि नहीं रह गई हैं।

तकनीक केवल तकनीक नहीं घुपपैठ की औजार भी है

पैसो के अलावे अमीरी की वजह से ताकतवर कहलाने वाले देशों द्वारा अपनी खुफिया एजेंसियों के जरिये किसी देश की राजनीति को प्रभावित करने की घटनाएं सामान्य तौर पर देखी जाती रही है। भारत में भी 1952 के बाद से चुनावों में खुफिया एजेंसियों की भूमिका के बढ़ने के दावे किए जाते रहे हैं। समय के साथ घुसपैठ के तौर तरीके बदलते रहे हैं। तकनीकी विकास ने सीधे घुसपैठ को बेहद आसान कर दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ये सामने आया कि रूस के राष्ट्रपति पूतिन ने हिलेरी को हराने के लिए साइबर के जरिये कैसे कोशिश की है।हिलेऱी ने इसकी जांच कराने की मांग भी की और उसके बाद कई तथ्यों से ये संकेत भी मिलते रहे हैं कि रुस की अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में सक्रियता थी।

राजनीतिक पार्टियों के लिए नया औजार

भारत के नये राजनीतिक औजारों में तकनीक का महत्व काफी बढ़ा है। यह भी कह सकते हैं कि राजनीतिक सफलता के दावे के लिए साइबर तकनीक पर ही सबसे ज्यादा निर्भरता हो गई हैं।2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी- राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और गठबंधन की जीत के पीछे तकनीक की बड़ी भूमिका रही है। राजनीति में पिछले चार पांच वर्षों के दौरान साइबर तकनीक का तेजी से विस्तार हुआ है। आम आदमी पार्टी की शुरुआती सफलता ने राजनीतिक पार्टियों के तकनीक के मुहल्ले का रास्ता दिखाया। पिछले चार वर्षों में सत्ताधारी नेताओं की दुनिया के लगभग सभी प्रमुख साइबर मंचों के मुखिया से मुलाकातें भी होती रही है।

भारत के 2019 के चुनाव

भारत खुद को दुनिया की सबसे मजबूत अर्थ व्यवस्था वाले देशों में शामिल होने का दावा करता है। जाहिर है कि इस देश में होने वाले चुनाव में भी दुनिया भर की ताकतें सक्रिय हो तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। यह ताकत इस रुप में भी दिखती है कि अमेरिका के ना कहने के बावजूद भारत ने रुस के साथ रक्षा सौदा करने का फैसला किया। राष्ट्रपति ट्रंप की धमकी सुनने के बजाय राष्ट्रपति पूतिन के लिए लाल दरी बिछाई। राफेल के सौदे के बाद रुस के साथ रक्षा सौदे के फैसले को सत्ताधारी दल ने अपनी बड़ी कामयाबी के रुप में स्थापित किया है। भारत के चुनाव में पैसों की भूमिका का उल्लेख करने का प्रयास मजाक करने जैसा होगा। चुनाव पैसे का इस तरह खेल हो गया है कि पैसे वाला ही चुनाव लड़ता है। राजनीतिक पार्टियां पैसों वालों की पार्टी के रुप में ही जानी जाती है। अमीर देशों की तरह उन्हें अब बाहरी मदद की ज्यादा जरुरत होती है। किसी देश के अमीरों को बाहरी मदद की इस तरह से जरुरत है कि वह मतदाताओं को दिमागी रुप से नियंत्रित कर सके । इसमें साइबर तकनीक की ताकत का अनुभव पूरी दुनिया कर चुकी है। लिहाजा यह उत्सुकता होती है कि क्या भारत के 2019 के चुनाव में साइबर के मामले में ताकतवर देश की भूमिका होगी तो वह देश कौन हो सकता है ? रुस ने अपने का प्रमाणित कर दिया है।

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