मोदी सरकार की नीति: पैसा नहीं तो शिक्षा नहीं
मोदी सरकार की नीति: पैसा नहीं तो शिक्षा नहीं
शिक्षा किसी देश के विकास की बुनियादी नींव तैयार करती है। इसीलिए जब किसी देश के विकास की बात होती है तो उसमें यह देखा जाता है कि वह देश अपने बजट का कितना हिस्सा शिक्षा पर खर्च कर रहा है।लेकिन भारत जैसे देश के लिए यह एक चिंता का विषय है कि लगातार साल दर साल शिक्षा के बजट में कटौती की जा रही है। खासकर, जबसे केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार आयी है, शिक्षा के बजट में लगातार कटौती की जा रही है।
2014-15 के केन्द्रीय बजट में शिक्षा के लिये टोटल बजट का 6.15 प्रतिशत आंवटित किया गया था, जो 2017-18 में क्रमशः घटते हुए 3.71 प्रतिशत पर आ गया है। इस बजट कटौती का असर सर्व शिक्षा अभियान से लेकर उच्च शिक्षा तक सबपर पड़ा है।
वहीं दूसरी तरफ प्रतीकात्मक चीजों पर ज्यादा से ज्यादा पैसे बर्बाद किये जा रहे हैं। किसी मूर्ति के लिये 3000 करोड़ रुपये खर्च कर दिये जा रहे हैं तो वहीं विश्वविद्यालयों में तोप टैंक और मूर्ति लगाने में पैसे खर्च किये जा रहे हैं।
प्राथमिक या माध्यमिक शिक्षा हो या उच्च शिक्षा इन सभी के लिए छात्रों को प्राइवेट स्कूलों तथा कॉलेजों का रुख करना पड़ रहा है और इन प्राइवेट संस्थानों तक भी वही लोग पहुंच पा रहे हैं, जिनके पास इतना पैसा होना चाहिए जो उनके मुंह मांगे पैसा खर्च कर शिक्षा लेने की कूबत ऱखता हो।
" सब पढ़े, सब बढ़े" जैसे नारे को केवल आप पोस्टरो में ही देखने को मिलता है जबकि हकीकत यह है कि निम्न आय वर्ग के लोगों के लिये बेहतर शिक्षा सिर्फ सपना भर बनकर रह गया है।
दो साल पहले केन्द्र सरकार उच्च शिक्षा में बिना नेट के एम.फिल. और पी.एच.डी. करने वाले छात्रों को मिलने वाली शोधवृत्ति पर अंकुश लगाने की तैयारी में थी लेकिन छात्रों के विरोध के चलते फिलहाल मामला टल गया।
राष्ट्रीय उच्च शिक्षा मूल्यांकन परिषद ने भी अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में साफ किया है कि भारत में 68 फीसद विश्वविद्यालय और 90 फीसद कॉलेजों में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता या तो मध्यम दर्जे की है या फिर दोषपूर्ण है।
हाल ही में जवाहरलाल नेहरू जैसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय की लाइबेरी के फंड में 80 प्रतिशत की कटौती इस धारणा को और मजबूत करता है। ये बजट कट सीधे तौर पर छात्रो पर इस रुप में हमला है कि शिक्षा अब केवल एक ऐसे वर्ग तक सिमट जाएगी जो उसके ऊँचे दाम चुका सकते है।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष एन साई बालाजी कहते हैं, “जेएनयू के छात्रों को बाहर ऐसा दिखाया जाता है कि हम केवल प्रोटेस्ट करते हैं, पढाई नहीं। लेकिन हम पढ़ पाये, इसके लिए प्रोटेस्ट करते हैं।”
वे स्पष्ट करते हैं, “सरकार जब इतनी बडी मात्रा में लाईब्रेरी का फंड कट करेगी तो कोई भी छात्र कैसे चुप रह सकता है। मौजूदा सरकार पूरी तरह उस गरीब तबके के खिलाफ है जो पढना चाहते हैं”।
जेएनयू में शोध कर रहे छात्र अभिषेक सौरभ बताते हैं कि पत्रिकाओं की संख्या में कमी आयेगी, साथ ही जो जरूरी किताबों को गरीब छात्र मंगवाते थे अब मंगवा नहीं पायेंगे।
कुछ किताबें इतनी मंहगी होती हैं, जिसे खरीद पाना छात्रों के लिए आसान नही होता जो लाइब्रेरी मुहैया करवाती हैं, अब वो किताबें मिलनी मुश्किल होगी।
अभिषेक आरोप लगाते हैं कि 80% फंड का काटा जाना छात्रों को प्राईवेट यूनिवर्सिटी की तरफ धकेलने की एक सोची समझी साजिश है। सरकार द्वारा मूर्ति बनाने की राजनीति करने से अच्छा है वो विवेकानंद और सरदार पटेल जैसे आदर्श और व्यक्तित्व के ज्ञान छात्रों तक पहुँचाए।
किसी मूर्ति निर्माण में सरकार 3000 हजार करोड़ आसानी से खर्च कर सकती है पर वही दूसरी तरफ शिक्षा जैसे मूलभूत आवश्यकता को वो भूल जाती है। कुंभ जैसे मेले के लिए सरकार के पास बजट मौजूद होता है पर शिक्षा के लिए वह कुछ नही करती है।
बालाजी पूछते हैं “मौजूदा सरकार इस बात पर टिकी है कि जो शिक्षा लेगा, वो पैसा देगा अब इस जगह में तो केवल वे लोग फिट हो पाएंगे जिनके पास पैसे है ।जबकि देश में ऐसा तबका भी है जो शिक्षा खरीद पाने में सक्षम नही है वो कहाँ जाएगा?”
जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी शिक्षक संघ के अध्यक्ष अतुल सुद लाइब्रेरी फंड कट पर कहते हैं, ‘किसी भी यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी उसका ऐसा अंग है जो बेहद महत्वपूर्ण है। विंडबना है कि आज लाइब्रेरी का फंड कम होता जा रहा है और दूसरी तरफ सिक्योरिटी जैसी चीजों पर इसकी तुलना में ज्यादा फंड दिया जा रहा है”।
प्रो.अतुल कहते हैं कि जरुरी यह नहीं है कि कौन सी पार्टी की सरकार है, बल्कि यह जरुरी है कि शिक्षा का सवाल महत्वपूर्ण है या नहीं।
उच्च शिक्षा पाने के लिए छात्र एजुकेशन लोन लेता है और फिर उनकी आधी जिंदगी और कमाई इस लोन को चुकाने में ही जाया होती है। कर्ज की वजह से किसानों की आत्महत्या की खबरों के बाद अब कई जगह शिक्षा के लिए कर्ज के कारण छात्रों के आत्महत्या की भी खबरें आने लगी है। ऐसी स्थिति में कम ब्याज दर पर शिक्षा के लिए कर्ज इस समस्या का समाधान नहीं होते है क्योंकि पढ़ाई खत्म होते ही कर्ज पर ब्याज लगना शुरू हो जाता है. यह छात्रों पर मानसिक दबाब बनाता है।
एक बातचीत में लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी के चांसलर अशोक मित्तल कहते हैं कि “निजी संस्थान जो सुविधाएं और शिक्षा के स्तर को लेकर काम कर रहे हैं वह सरकारी संस्थानों में नहीं हैं। इसलिए छात्रों का रूझान निजी विश्वविद्यालयों की ओर ज्यादा है। उच्च शिक्षा को लेकर सरकार की भी नीति स्पष्ट नजर नहीं आ रही है।”
सभी के लिए बेहतर शिक्षा की व्यवस्था करना देश के सरकारों की मुख्य जिम्मेदारी है। लेकिन आंकड़ों और तथ्यों से यह साफ है कि चाहे वह केंद्र की सरकारें रही हों या राज्य की सरकारें, अधिकत्तर इस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रही है। साथ ही मौजूदा सरकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपना पल्ला झाड़कर इसे एजुकेशन लोन, निजी और विदेशी यूनिवर्सिटियों के हवाले कर रही है। इन यूनिवर्सिटियों में काफी ऊंची फीस होती है जिसके कारण कर्ज यानी एजुकेशन लोन लेना पडता है।
सरकार का फंड कट करना साफ बताता है कि पैसा दो और शिक्षा लो.