7 फरवरी को युवा अधिकार मार्च की वजहें

चिंटू

Update: 2019-01-27 12:20 GMT

संविधान की आत्मा और लोकतांत्रिक तानेबाने पर एक के बाद एक गहरा चोट किया जा रहा है . हाल ही में ताज़ा मसला विश्वविद्यालये में रोस्टर प्रणाली को लेकर विवाद का है.

इस विवाद का कारण है की BHU के एक शोध छात्र के अपील पर इलाहाबाद हाईकर्ट की एकल बेंच ने 7 अप्रैल 2017 में विवेकानंद तिवारी विरुद्ध भारत सरकार मामले में एक फैसला सुनाया जिसमे 200 पॉइंट रोस्टर प्रणाली को ख़तम कर 13 पॉइंट रोस्टर प्रणाली ( विभाग आरक्षण की इकाई होगी ) को मान्यता दी गई. अचानक से 200 पॉइंट रोस्टर के स्थान पर 13 पॉइंट रोस्टर लाने के क्या और किसको संभावित सहूलियत हो सकती ?. 13 पॉइंट रोस्टर के मुताबिक शिक्षकों की नियुक्ति में कॉलेज या विश्वविद्यालय को इकाई मानने के बजाये विभाग को एक इकाई मानकर आरक्षण दिया जायेगा. इस नए नियम के तहत शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण लगभग समाप्त हो जायेगा. जिसका व्यावहारिक मायना यह है कि दबे कुचले शोषित समाज के लोग विश्वविद्यालय में पढ़ाने से वंचित हो जायेंगे. सभ्यता का नकाब ओढ़े हमारे समाज और व्यवस्था का चेहरा तब और ज्यादा उजागर होता है जब आप यह जानते है कि आजाद भारत में अब तक प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर लेवल पर एक भी पिछड़े समुदाय को पहुचने नहीं दिया गया है.

सैकड़ों सालों से सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक रूप से दबे, कुचले, उपेक्षित समाज को न्याय और प्रतिनिधित्व कैसे मिल सके इसके लिए संविधान सभा द्वारा लम्बी चर्चा और तर्क-वितर्क के बाद आरक्षण देना उचित समझा गया था ताकि स्वतंत्र भारत में हर वर्ग लोकतंत्र का भागीदार बन सके. लेकिन विडम्बना यह है की आज़ादी के बहत्तर साल बाद भी हाशिये के समाज को प्रतिनिधित्व और न्याय देने के मामले में हमारी हुकूमत की हालत लचर रही है जिसके कारण आज का छात्र - युवा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है.

अनुसूचित जनजाति और शारीरिक रूप से अक्षम लोगों की तो बात ही छोडिये क्योंकि अगर ये प्रजाति विश्वविद्यालयों से पूरी तरह से विलुप्त हो भी जाये तो किसको क्या फर्क पड़ता है क्यूंकि सरकार बनाने के लिहाज़ से उनकी जनसँख्या मामूली सी है. गणतंत्र दिवस के मौके पर गाजे बाजे और झांकियों के बीच शायद ये सारी आवाजें दब जाये लेकिन अपने संविधान के मूल भावना के साथ बेईमानी करके हम क्या हासिल कर लेंगे.

हालांकि 200 पॉइंट रोस्टर के लिए सरकार द्वारा बेहद ही दुखी मन से एक कमज़ोर SLP दायर किया गया जिसको सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया. सवाल यहाँ अब ये उठता है की तीन दिन के भीतर सवर्ण रिजर्वेशन जब आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके के लिए लाया जा सकता है तो क्या अध्यादेश लाकर सामाजिक न्याय की रक्षा नहीं की जा सकती ?

लेकिन सच्चाई यह है कि जातिवाद और पूंजीवाद का विशुद्ध मिश्रण हमारे समाज को समयचक्र के मनुवादी काल में ढकेलने की चाहत से प्रेरित है. लम्बे समय तक ‘नॉट फाउंड सूटेबल’ का तर्क देकर वंचित समाज को शिक्षण संस्थाओ से दूर रखा गया अब जब गिरते-पड़ते मुश्किल बाधाओं को पार करते हुए जब शोषित तबका योग्यता प्राप्त कर ले रहा है तब भी येन के प्रकरेण यह व्यवस्था उनको नए-नए तर्क और कायदे बनाकर शिक्षण संस्थाओं से उन्हें बेदखल करना चाहती है.

वास्तब में आधुनिक मनुवादियों की दूर दृष्टि बहुत गहरी है. वो इस बात को पहले से ही भांप ले रहे हैं की सामाजिक रूप से हाशिये के समाज के शिक्षण संस्थाओं में आने के क्या मायने होंगे. अतः यह ज़रूरी है कि शिक्षा के दरवाज़े दलित बहुजनों के लिए बंद किये जाएँ ताकि आसानी से शिक्षा के गलियारे से दलित बहुजन डिस्कोर्स को समाप्त करना संभव हो पाए, वैकल्पिक और सबल्टर्न नैरेटिव को पाठ्यक्रम से बाहर किया जा सके और शिक्षाशास्त्र का मनुवादी पैमाना तय करने में आसानी हो.

आगामी लोक सभा चुनाव को ध्यान में रखकर जो भी सोशल इंजीनियरिंग चल रही है उसे यंग इंडिया बखूबी समझ रहा है . जिस देश में 82 % महिलाओं और 92 % पुरुष महीने में 10000 या उससे कम कमाते हों, जहाँ 24 लाख सरकारी पोस्टखाली पड़े हों , जहाँ आजाद भारत में शिक्षा पर बजट पर सबसे ज्यादा गिरावट हो ( 2013-14 में 4.77 % से घटकर 2018-19 में 3.48 %), जहाँ खुद MHRD के रिपोर्ट के अनुसार हर 100 में से 18-23 ऐज ग्रुप में केवल 25.8% उच्च शिक्षा में प्रवेश कर पाते हों, जहाँ 2014 -2016 के बीच 26000 छात्रों ने खुदखुशी कर लिया हो (इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्ट ), जहाँ चलते फिरते कोई नजीब गायब हो जाता हो और किसी रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या हो जाति हो वहां खतरे की घंटी न केवल सामाजिक रूप से वंचित तबके के लिए है बल्कि हर जाति -वर्ग, पूरी मानवता और लोकतंत्र के लिए है. फूट डालो शासन करो नीति और इतिहास को भुला देने की साजिश हर काल में दोहराई जाति रही है लेकिन इसका कोई सबूत नहीं कि हर बार शासक वर्ग कामयाब रहा हो. जातीय समीकरण के ऊपर भी कुछ मुद्दे हैं जिनको यंग इंडिया भूला नहीं है . अतः समाज के हर तबके को तबाह करने वाले असली मुद्दे जैसे दो करोड़ नौकरी, अच्छे दिन, काले धन की वापसी, राफेल सौदा में घपला , शिक्षा बजट में कटौती, भुखमरी, कुपोषण जैसे मुद्दों से भटकाकर लोगों को आपस में लड़ाकर 2019 की चुनावी नया पार लगाना आसान नहीं दिखता. 7 फरवरी 2019 को यंग इंडिया अधिकार मार्च के बैनर तले पूरे देश भर का हजारों छात्र और नौजवान, देश भर के विभिन्न यूनिवर्सिटीज के छात्र प्रतिनिधि समेत करीब 50 छात्र संगठन सड़कों और संघर्षों पर महागठबंधन बनाकर संविधान के मूल आत्मा को बचने के लिए , शिक्षा, सम्मानजनक रोजगार, आरक्षण पर सुनियोजित हमला , अरसे से खाली पड़े 24 लाख सरकारी पदों की भर्ती के सवाल पर राजधानी दिल्ली में अपने मन की बात सुनाने के लिए लाल किले से संसद मार्च करेंगे. अतः जातिवादी अहंकार और पूंजीवादी गठजोड़ के खिलाफ कोई मुकम्मल लड़ाई लड़नी है तो हर तरक्की पसंद और लोकतंत्र पसंद सजग अवाम को एकजूट होना ही होगा.

लेखिका जे एन यू छात्रसंघ पूर्व महासचिव हैं
 

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