जनांदोलन के लोगों का शासन और समाज के नाम खुला पत्र

द सिटिजन ब्यूरों

Update: 2019-01-27 12:38 GMT

आज हम सब, इस देश के अनेक राज्यों से पधारे वैज्ञानिक, शोधकर्ता, सामाजिक कार्यकर्ता जो गंगा और हर नदी के प्रेमी हैं लेकिन हमारे जीवन में नदी का मातृत्व और महत्व जानने वाले हैं, हरिद्वार के मातृसदन में उपस्थित हैं। बेहद उद्विग्नता के साथ एवं चिंतित होकर ही नहीं, आपसे कुछ कड़ी अपेक्षा के साथ भी, यह पत्र भेज रहे हैं।

आप और हम भली–भांति जानते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने 2014 में स्वयं को गंगापुत्र घोषित किया था और गंगा के शुद्धिकरण पर ना केवल मंत्रालय का नाम रखा था बल्कि वादा किया था कि वे गंगा को निर्मल बनाकर ही छोड़ेंगे। सुश्री उमा भारती जी जल संसाधन के साथ गंगा की भी मंत्री बन गयीं तब उन्होंने घोषणा की कि अगर यह काम पूरा नहीं कर पायी तो जान दे दूंगी। आज गंगा की हालत जो अवैध रेत खनन के साथ बड़े-बड़े बाँध बनाने तथा जल नियोजन में न कोई विज्ञान नि किसी कानून की चाह रखने या पर्यावरणीय प्राकृतिक नियमों की अवमानना करने से ही हुयी है उसे आप नजरअंदाज नहीं कर सकते अपितु आपको हमारी बात सुननी होगी, इस आग्रह के साथ लिख रहे हैं। शासनकर्ता या कोई राजनेता जनता से वोट मांगने के लिए निकलने के पहले जवाबदेह बने ऐसे सवाल उठाने के लिए ही आप तक पहुंचा रहे हैं ।

आप जानते हैं कि प्रोफ. जी डी. अग्रवाल जी एक बुद्धिमान वैज्ञानिक जो गंगा को पूरी गहराई से जानते और विशेष योगदान मानते थे, आज हमारे बीच नही रहे। उनका आखिरी अनशन जो 110 दिनों तक चला, उसके अंत में एम्स अस्पताल दिल्ली में हुआ उनका देहांत, उनके आश्रम के और नजदीकी साथी मानते हैं, हत्या थी। उनकी मांग पर न कोई विचार, न ही चर्चा शासनकर्ताओं से हुयी, न ही गंगा को बचाने के लिए, अविरल व निर्मल रखने की उनकी मांग पर कोई संवेदना दिखाई दी। उन्होंने कोई बहुत ही कमजोर समझौता करने से नकारा लेकिन उनसे सकारात्मक व व्यवहार प्रस्ताव देने के बावजूद केंद्रीय राज्यशासकों ने कोई गहरा संवाद उनके साथ नहीं किया। अवैध रेत खनन जो नदी के जल चक्र को काटता है, को रोकने के लिए 2013 में उपवास पर बैठे स्वामी निगमानंद भी देह त्याग कर चुके हैं। एक 26 वर्षीय युवा संत अत्म्बोधानंद जी आज 90 दिनों से उपवास (मात्र शहद और नींबू लेकर) पर हैं। जिनकी अपार कटिबद्धता, प्राकृतिक विनाश के खिलाफ, गंगा बचाने के पक्ष में क्या हम शहादत ही देखते रहेंगे यह सवाल है।

स्वामी सानंद बनने के बाद भी प्रोफ. अग्रवाल जी के नाम देश के आई आई टी संस्थानों में गंगा के नाम पर शोध जारी है और देश भर के लोग जान चुके हैं कि गंगा बर्बाद करने में शासकों द्वारा रचाई बड़ी- बड़ी बांध परियोजनाएं, कछार उखाड़ने वाली, नदी में गाद भरने वाली जलपरिवहन जैसी योजनायें कारण हैं। गंगा और देश की कई प्रमुख नदियों में आज बाढ़ और सूखे का चक्र चल रहा है, जबकि पीढ़ियों से चलता आ रहा जलचक्र, जिसके बिना कोई नदी निर्मल क्या, अविरल बहती रहना ही नामुमकिन, वही तोड़ा जा रहा है। इस स्थिति से प्रभावित लाखों लोग, किसान, मजदूर, मछुआरे तो आक्रोशित हैं ही, जैसे हाल में ही वाराणसी के घाट पर आन्दोलन किये हैं। गंगा देश के 80% क्षेत्र में खेती का आधार है और करोड़ों के लिए पीने के साथ कारीगरी, छोटे उद्योगों के लिए भी जीवनधारा है। इसे किसी प्रकोप से नहीं तो विकास की झूठी अवधारणा और लोकतंत्र की परवाह तो क्या, प्रकृति की भी दखल न लेते, आगे धकेले कार्य व योजनाओं से गंगा की मौत सामने दिखाई दे रही है। इस स्थिति को नहीं पलटेंगे तो देश की जनता मात्र गंगा नहीं हर नदी को भी खो बैठेगी और गंगा या नर्मदा, गोदावरी, कावेरी, दामोदर, पेरियार या कृष्णा को खोने पर कोई विकल्प नहीं बच सकता है। नदी की धारा को बंधक बनाने पर पानी की सही मात्रा भी हर बाँध के नीचे वास में बहती न रहने पर, न केवल नदी बल्कि नदी कछार के हजारों हजार कुओं का सूखना, भूजल लुप्त होना और गंगा जल भी पीने लायक न रहना, जल प्रदूषण चोटी पर पहुंचकर यहाँ की जैविक विविधता की क्या, जंगल, पेड़, मछली तक का विनाश निश्चित है, हो रहा है। पीढ़ियों से बसे गाँव न आबाद रह सकते न ही विकसित। धर्म और आध्यात्म के केंद्र रहे तीर्थ पर्यटन को धंधा बनाने वाली योजनाओं से भी बचते नहीं। इस योजनाओं के विकल्प जो विकेन्द्रित, जनवादी, जनतांत्रिक और निरंतरता के आधार पर नदी और संसाधनों का उपभोग लेकर अमानवीय अत्याचार होने नहीं देते हैं, क्या आप जानने, समझने के लिए तैयार नहीं हैं? क्या बड़े ठेकेदार कम्पनियाँ और उनके साथ पैसा और सत्ता की भागीदारी करने वाले राजनेताओं के लिए हम अपनी मातृत्वदायी नदी और उसके साथ जुड़ी भूमि, भूजल, हरा आच्छादन और हमारी प्राकृतिक, सांस्कृतिक, पुरातत्वीय धरोहर खो देने को तैयार हैं? क्या हमारा कुम्भ मेले में लाखों की तादात में उमड़ना, नदी घटी पर पूजा अर्चना करना, अपने मनाव्य और मानता की उसे गवाह मनाना, क्या नदी को बचाएगी? कुम्भ मेला हो या परिक्रमा जैसी प्रकृति और मानव को जोड़ने की परंपरा जीवित रखेगा? भक्तों ने सोचना है, क्या कर्त्तव्य है हमारा? युवाओं ने सोचना है क्या भविष्य होगा हमारा? जल बिना मछली ही नहीं, इनसान भी न तड़पे इसलिए है युवा संत अत्मबोधानद जी का उपवास।

शासनकर्ता आज भी उनसे तथा स्वामी शिवानन्द और साधुसंतों के संतत्व को मानेंगे नहीं? क्या गोपालदास जी जैसे AIIMS से गायब किये गए, गंगा के ही लिए जान हथेली पर लेने वाले साधु की खोज करेंगे नहीं? क्या स्वामी सानंद जी की शहादत पर सोचेंगे और जाचेंगे भी नहीं? क्या मातृसदन में आकर चर्चा करेंगे नहीं? क्या गंगा को ही बर्बाद करने वाली योजनाओं पर पुनर्विचार करेंगे नहीं? गंगा और हर नदी को अविरल और निर्मल रखने का नियोजन करेंगे नहीं?

क्या समाज जागेगा नहीं? इन शासनकर्ताओं की असंवेदनाओं पर सवाल उठाएगा नहीं? क्या एक के बाद एक शहादत स्वीकारने वाले इन संतों के विचारों पर गहन सोच, संगोष्ठी और कृती कार्यक्रम में उतरेगा नहीं?

हमारा ऐलान है सभी संवेदनशील और विचारशील नागरिकों को कि वे जागें, आज और अभी! जानें बचाएं, न केवल अत्म्बोधानंद जैसे कटिबद्ध युवा संत की बल्कि गंगा की, हर नदी की और हमारी भी.... अगली आने वाली पीढ़ियों तक।
 

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