सांप्रदायिक हिंसा 2018: सत्ता की भूमिका और हिंसा का बदलता चरित्र

सांप्रदायिक हिंसा 2018: सत्ता की भूमिका और हिंसा का बदलता चरित्र

Update: 2019-02-01 15:42 GMT

समाचारपत्रों की रपटों के अनुसार, सन 2018 में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं की संख्या पिछले चार वर्षों में सबसे कम रहीं। सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म (सीएसएसएस), पांच समाचारपत्रों में छपी ख़बरों के आधार पर देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर नज़र रखता है। सन 2018 में ऐसी घटनाओं की कुल संख्या 38 थी, जो कि सन 2017 में 43, 2016 में 62 और 2015 में 47 थी। ये आंकड़े पांच अग्रणी समाचारपत्रों में छापी ख़बरों पर आधारित हैं। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के अनुसार, सन 2018 में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में 12 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी (द इकोनोमिक टाइम्स, 2018)। इस प्रकार, सरकारी आंकड़े भी सीएसएसएस के निष्कर्षों से काफी हद तक मेल खाते हैं। यद्यपि सन 2018 में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में कमी आयी है तथापि, देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और असहिष्णुता बढ़ी है। सीएसएसएस का निष्कर्ष है कि देश में गौहत्या व बच्चों के अपहरण के नाम पर पीट-पीट कर जान से मारने और घृणा-जनित अपराधों की संख्या बढी है। ऐसी 85 घटनाएं इस वर्ष देश में हुईं। इससे भी यह पता चलता है कि देश में साम्प्रदायिक शक्तियां मज़बूत हुईं है। सीएसएसएस के आंकड़े पांच अख़बारों में छपी ख़बरों पर आधारित हैं और इसलिए केंद्रीय गृह मंत्रालय से अलग हो सकते हैं। गृह मंत्रालय की, जाहिर तौर पर, ऐसे आंकड़ों तक बेहतर पहुँच होती है और लगभग हर वर्ष, मंत्रालय द्वारा जारी ऐसी घटनाओं की संख्या, सीएसएसएस के आंकड़ों से अधिक ही होती है। पीट-पीट कर मार डालने की घटनाओं और सांप्रदायिक हिंसा में इजाफा लगभग हमेशा इस कारण होता है क्योंकि सत्ताधारियों द्वारा संरक्षण दिए जाने के कारण, सांप्रदायिक तत्त्व बेख़ौफ़ हो जाते हैं और खुलकर अपनी गतिविधियाँ करते हैं। सन 2018 में यह तथ्य एक बार फिर रेखांकित हुआ कि सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों को न्याय मिलना अत्यंत दुष्कर है। गुज़रे साल, सालों के परिश्रम और न्यायपालिका के सकारात्मक रुख के चलते सन 1984 के सिक्ख-विरोधी कत्लेआम और हाशिमपुरा दंगे के मामलों में दोषियों को सजा मिल सकी। परन्तु कुल मिलकर,सत्ता , दोषियों को सजा और पीड़ितों को न्याय दिलवाने के लिए ख़ास प्रयास नहीं करती और यह कुछ हद तक, सत्ता के धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रह की ओर भी इंगित करता है। सन 2018 में भी, सत्ताधारियों ने सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा और संरक्षण दिया।

सीएसएसएस की कार्यविधि

सीएसएसएस के निष्कर्ष, पांच समाचारपत्रों - द इंडियन एक्सप्रेस, द हिन्दू, द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, सहाफत और इन्कलाब - के मुंबई संस्करणों में प्रकाशित ख़बरों पर आधारित हैं। पूर्व में, सीएसएसएस अपने निष्कर्षों की तुलना, केंद्रीय गृह मंत्रालय के आकड़ों से करता था परन्तु मंत्रालय ने इन आंकड़ों का प्रकाशन बंद कर दिया है। पारदर्शिता और जवाबदेही, प्रजातंत्र की पहचान हैं। परन्तु सरकार ने अचानक सांप्रदायिक हिंसा से सम्बंधित आंकड़ों का प्रकाशन रोक दिया है जिससे इस बारे में आधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पा रही है। चूँकि मंत्रालय की पहुँच देश के हर पुलिस स्टेशन के अभिलेखों तक होती है, अतः उसके आंकड़े स्वाभाविक तौर पर, सीएसएसएस के आंकड़ों से अधिक सही होते हैं। उदहारण के लिए, अख़बारों में छपी ख़बरों के आधार पर, सीएसएसएस ने सन 2017 में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं की संख्या 43 बताई परन्तु केंद्रीय गृह राज्य मंत्री ने बताया कि इस वर्ष देश में सांप्रदायिक हिंसा की 822 वारदातें हुईं, जिनमें 111 लोग मारे गए और 2,384 घायल हुए। उनके अनुसार, 2016 में, ऐसी 703 घटनाएं हुईं, जिनमें 86 लोग मारे गए और 2,321 घायल हुए। सन 2015 में, सांप्रदायिक हिंसा की 751 घटनाओं में 97 मौतें हुईं और 2,264 लोग घायल हुए (द हिन्दू, 2018)। सीएसएसएस के अनुसार, सन 2017 में 43, 2016 में 62 और 2015 में 47 सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुईं।

सीएसएसएस द्वारा संकलित आंकड़ों में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में कमी दृष्टिगोचर होने का यह अर्थ नहीं कि देश में साम्प्रदायिकता में कमी आयी है। सांप्रदायिक हिंसा, साम्प्रदायिकता के दानव का एक पहलू भर है। सांप्रदायिक हिंसा में पीट-पीट कर मार डालने और नफरत से उपजे अपराध शामिल हैं। सांप्रदायिक हिंसा और दंगे, शारीरिक हिंसा की श्रेणी में आते हैं परन्तु शारीरिक हिंसा, घृणा से जनित अपराधों का आवश्यक हिस्सा नहीं होती। इसमें शामिल हैं नफरत फ़ैलाने वाले भाषण, भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण और विभिन्न संस्थाओं द्वारा की जाने वाली संस्थागत हिंसा। भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार दिए जाने और सांप्रदायिक दंगों में यद्यपि कई समानताएं हैं, तथापि उनमें जो मुख्य अंतर है वह यह है कि जहाँ दंगों में एक पूरे समुदाय को निशाना बनाया जाता है वहीं लिंचिंग का शिकार एक या चंद व्यक्ति होते हैं। इन्हें अक्सर किसी ‘अपराध’ या ‘गलती’ का दोषी ठहराया जाता है। सांप्रदायिक दंगों द्वारा किसी समुदाय को सामूहिक ‘सजा’ दी जाती है। दंगों में ‘शत्रु’ समुदाय के सभी सदस्यों को निशाना बनाया जाता है, उनको भी जिनके मामले में हमलावरों को यह ज्ञात होता है कि वे पूरी तरह से निर्दोष है। उनका अपराध केवल इतना होता है कि वे सम्बंधित समुदाय के सदस्य होते हैं। लिंचिंग, एक तरह से सांप्रदायिक हिंसा का एक दूसरा स्वरुप है, जिससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।

सांप्रदायिक हिंसा में मारे गए और घायल व्यक्तियों का धर्म के आधार पर वर्गीकरण

ऊपर उल्लेखित समाचारपत्रों में जनवरी 1 से लेकर दिसंबर 31 के बीच प्रकाशित ख़बरों से पता चलता है कि इस अवधि में सांप्रदायिक हिंसा की 38 घटनाएं हुई, जिनमें 12 जानें गयीं और 271 लोग घायल हुए। मृतकों में से सात हिन्दू थे, तीन मुसलमान और एक का धर्म स्पष्ट नहीं है। एक मृतक पुलिसकर्मी था। मरने वाले हिन्दुओं में से दो साधु थे, जो हिंसा में नहीं मारे गए वरन उनकी मृत्यु से हिंसा भड़की। घायलों में से 13 हिन्दू, छह मुसलमान, 12 ईसाई और 40 पुलिसकर्मी थे। दो सौ अन्य लोगों के धर्म के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है।

गिरफ्तार किए गए लोगों की धर्मवार संख्या

38 साम्प्रदायिक घटनाओं के संबंध में 464 व्यक्तियों की गिरफ्तारी हुई। इनमें से 418 के धर्म के संबंध में जानकारी नहीं दी गई, 34 मुसलमान थे और 12 हिन्दू। सन् 2017 में भी गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों में मुसलमानों की संख्या अधिक थी। परंतु पिछले वर्षों के विपरीत इस वर्ष घायल होने वालों और मृतकों में हिन्दुओं की संख्या अधिक थी।

घटनाओं की प्रदेशवार संख्या

यह कतई आश्चर्यजनक नहीं है कि पिछले चार वर्षों की तरह इस वर्ष भी साम्प्रदायिक हिंसा की सबसे अधिक घटनाएं उत्तरप्रदेश में हुईं। सन् 2018 में हुई 38 साम्प्रदायिक घटनाओं में से 17 उत्तरप्रदेश में हुई। इसके बाद बिहार में सात एवं महाराष्ट्र में पांच घटनाएं हुईं।

अधिकतर (38 में से 36) घटनाएं भाजपा शासित राज्यों में हुईं। दो घटनाएं तृणमूल कांग्रेस शासित पश्चिम बंगाल में हुईं। आज भारत के 29 में से 22 राज्यों में भाजपा सत्तारूढ़ है।

सीएसएसएस टीम: नेहा दाभाडे़, इरफान इंजीनियर, सूरज नायर एवं सिद्धि पेंढ़के

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