लाखों आदिवासियों की बेदखली के फैसले के वक्त सरकारी वकील नहीं था
पूजा प्रसाद
वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया, नेचर कनसर्वेशन सोसायटी और टाइगर रिसर्च व कनसर्वेशन ट्रस्ट द्वारा यह याचिका दायर कीगई थी कि जिन वन समुदायों को वनाधिकार नहीं मिला है उन्हें वन से निष्कासन किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर फैसला दिया है कि वन समुदाय जिन्हें वन अधिकार नहीं मिला है , उन्हें वन से निष्कासित किया जाये। साल 2006 में वनाधिकार कानून लागू होने के बाद से ही प्रो-कारपोरेट लॉबी के दबाव में वन अधिकार कानून को कमजोर करने की कोशिशें जारी हैं। वनवासियों को वन्य अधिकारों से वंचित करने की ये साजिशें वन अधिकार कानून 2006 के उद्देश्यों को धवस्त कर देंगी।
यह गौर किया जाना चाहिए कि कानून का अनुच्छेद 12 ग्राम सभा को विभिन्न वन अधिकार से जुड़ी कमेटियों और उनके मशविरों पर फैसले लेने का अधिकार देता है। जिला स्तर की कमेटियां ग्राम सभा के फैसलों और मशविरों पर सिर्फ राय व्यक्त कर सकती हैं। ऐसा मालूम होता है कि कोर्ट ने इन महत्वपूर्ण बिंदुओं को दरकिनार कर दिया। केन्द्र सरकार के वकील की गैर-मौजूदगी में कानून के अंतर्गत विभिन्न प्रावधानों और राज्य सरकारों द्वारा दायर की गई याचिकाओं की विस्तार से विमर्श का आभाव महसूस होता है.
इस पूरी कानूनी प्रक्रिया में सुनवाई के दौरान सरकार के वकील की अनुपस्थिति वन समुदाय के खिलाफ औपनिवेशिक मानसिकता को पुष्ट करती है और बताती है कि सरकार उनके अधिकारों और कल्याण को कैसे देखती है।विश्वविद्यालयों में 13 प्वाइंट रोस्टर को लागू करने के फैसले और उससे पहले अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून, जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में दलित एक्ट कहा जाता है,के प्रावधानों को खत्म करने के फैसले के वक्त भी सरकारी वकीलों की भूमिका की आलोचना की गई थी।
आदिवासियों को बेदखल करने का फैसला, अगर लागू किया गया, तो यह वन अधिकारियों को वनवासियों को प्रताड़ित करने का बहाना दे देगा। वनवासियों को इसी तरह की प्रशासनिक अत्याचार से बचाना वन अधिकार कानून का मकसद रहा था। औपनिवेशिक शासकों द्वारा ऐतिहासिक तौर पर अन्याय सहती आए समुदायों को आजादी के बाद न्याय और आत्म सम्मान देने के लिए वन अधिकार कानून को लाया गया था।
पिछली बार एनडीए सरकार के पर्यावरण मंत्रालय के आदेश पर इसी तरह देश भर में वन समुदायों के निष्कासन की प्रक्रिया 2002-2004 में चलायी गयी थी, वो भी सुप्रीम कोर्ट के 23 नवंबर 2001 के अप्रभावी आदेश के संदर्भ में ही था। एक गलत धारणा के आधार पर कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को लगभग 12.50 लाख हेक्टेयर वन भूमि अतिक्रमण के अधीन है और यह कि 'सभी अतिक्रमण जो नियमितीकरण के योग्य नहीं हैं, को संक्षेप में निकाला जाना चाहिए। समयबद्ध तरीके से और किसी भी मामले में 30 सितंबर, 2002 से बाद में नहीं।
कम से कम देश का दो तिहाई वन क्षेत्र आदिवासियों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, जो संविधान के पांचवीं सूची में भी आते हैं। यदि इस आदेश को माना जाता है तो निश्चित तौर पर देश के कई हिस्सों में अशांति पैदा होगी जिससे आदिवासियों और दूसरे वन समुदायों के जीवन पर खराब प्रभाव पड़ेगा। इस आदेश के साथ ही पहले से वन अधिकार पाने वालों के अधिकार पर भी खतरा होगा। इतना ही नहीं इस बात की भी आशंका है कि उनपर वन विभाग और निजी कंपनियों के माफियाओं द्वारा शोषण किया जाएगा।
हालांकि वन अधिकार पर काम करने वाली संस्थायें और समूह इस फैसले को चुनौती देने की तैयारी में लग गए हैं। भूमि अधिकार आंदोलन ने अपने बयान में कहा है कि वो इस फैसले को कोर्ट में चुनौती देगा और वन अधिकारों के साथ हो रहे छेड़छाड़ के खिलाफ चुप नहीं बैठेगा। आंदोलन ने राजनीतिक दलों से भी अपील किया है कि वे भी इस फैसले पर अपना विरोध दर्ज करवाएं और जंगलों को खत्म करने के इस षड्यंत्र में न फंसें। अपने बयना में उन्होंने कहा है कि राजनीतिक दल वन अधिकार कानून को और भी सुचारू ढंग से लागू करने की प्रतिबद्धता दिखाएं। आम चुनावों के नजदीक आते ही यह विमर्श जारी है कि सोची-समझी साजिश के तहत वन अधिकार कानून को सरकारी संस्थाएं द्वारा कमजोर किया जा रहा है ताकि कारोबारी समूहों और तथाकथित जंगल बचाने वाले समूहों की मदद की जाए।
यह गौर करने वाली बात है कि पिछले साल और आज भी मुंबई में हो रहे ऐतिहासिक किसान मार्च में वन अधिकार के दावों को स्वीकार करने में अनियमितता होने की बात को प्रमुखता से उठाया गया था।जब से वनाधिकार कानून आया है, देश भर में वन समुदाय इस अधिकार को हासिल करने और कानून के पालन करने की मांग को लेकर संघर्षरत हैं। लेकिन सरकार द्वारा इस कानून को लागू करने में इच्छाशक्ति की कमी की वजह से आजतक इसे जमीन पर प्रभावी तरीके से लागू नहीं करवाया जा सका है। उल्टे सरकार ने इस विकास औऱ संरक्षण के नाम पर इस कानून को कमजोर करने की ही कोशिश की है।
जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्यव्य (एनएपीएम) ने भी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की निंदा की है और कहा है कि वन समुदायों की रक्षा के लिये सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए। उन्होंने इस मामले में सरकार से अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने के नाम पर उत्पीड़न के प्रयासों को रोके और वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करने की मांग की है।