सौगातों की ‘चुनावी’ बारिश
लोकसभा चुनावों के मद्देनजर प्रधानमंत्री द्वारा परियोजनाओं के उद्घाटन पर सवाल
चुनाव आने वाले है और हमारे प्रधानमंत्री जी पूरी तरीके से चुनावी मोड में आ गए हैं. हरेक दिन भाषण हो रहे हैं. भाषणों में वही सारी बातें – पिछली सरकारों ने कोई काम नहीं किया, हमारी सरकार ने सारी समस्याओं को ख़त्म कर दिया और पुलवामा के शहीदों के कतरे-कतरे का हिसाब लेंगे.
इसके साथ ही, आजकल सौगातों का समय है. मीडिया की रिपोर्टिंग देखिये, मोदी जी बनारस को 1900 करोड़ की सौगात देंगे, बिहार को इतने करोड़ की सौगात देंगे. मीडिया को छोड़ भी दें, तो प्रधानमंत्री खुद भी ऐसे शब्दों का उपयोग सरेआम करते हैं. बिहार के चुनावों के समय याद कीजिये, जब उन्होंने कहा था कि अगर हम सत्ता में आये तो दिल्ली का खजाना आप के लिए खोल देंगे.
लोकतंत्र में विकास परियोजनाएं क्या सरकारी सौगात कही जा सकती हैं? क्या विकास हमारा अधिकार नहीं है? सौगात तो वो होता है, जो अनपेक्षित हो और जिसके बदले में आप कुछ आशा नहीं करें. यदि तटस्थ विश्लेषण करें, तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि चुनाव के ठीक पहले रोज-रोज तथाकथित सौगात लेकर अलग-अलग राज्यों में दौड़ने का मतलब क्या है? क्या यह सब वोट के लिए नहीं है. सौगात भी अपनी जमीन खिसकने के अनुसार होती है.
मीडिया सरकार की वाहवाही में व्यस्त है, ऐसे में जाहिर है कि वह चुनावों के ठीक पहले सौगातों की बारिश के बारे में कभी प्रश्न नहीं करेगा. पर, पूरे साढ़े चार साल के बाद अंतिम छह महीनों में सौगातों की बारिश कहाँ तक जायज है? क्या इसका मतलब यह है कि आप चुनावों के लिए विकास परियोजनाओं को रोक कर रखते है और चुनावों के ठीक पहले ही केवल अपने लाभ के लिए इन परियोजनाओं पर ध्यान देते हैं?
मीडिया तो हमारे देश में जैसी है, वह सब जानते हैं. इतनी गिरावट शायद और कहीं नहीं है. पर, अब तो जनता पर भी आश्चर्य होता है. प्रश्न पूछना तो दूर अधिकतर लोगों के दिमाग में तो प्रश्न भी नहीं आते. यदि गलती से आपके दिमाग में कोई प्रश्न आ गया तो आप देशद्रोही करार दिये जाते हैं. सौगातों से दूर सामाजिक विकास पर कोई चर्चा नहीं होती. सरकार अभी तक ताल थोक कर कहती है, सबका साथ, सबका विकास. दूसरी तरफ मीडिया उन रिपोर्टों को जनता तक पहुँचाने ही नहीं देता जो सामाजिक समस्याओं की तरफ इशारा करते हैं यो फिर सामाजिक विषमताओं को उजागर करते हैं.
यहाँ तो खजाने की बातें हो रही हैं, जिसे रिज़र्व बैंक भरने के लिए तत्पर है. वैसे भी खजाना तो राजतंत्र में होता था, लोकतंत्र में तो राजकोष होता है. पर हामारी लोकतांत्रिक सरकार इसे भी खजाना ही बना चुकी है.
प्रसिद्ध फिल्म आनंद में एक डायलॉग था, “हम तो इस रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं जहाँपनाह, जिसकी बाग़डोर ऊपरवाले के हाथ में है”. आज के सन्दर्भ में इसे देखें तो हम सब कठपुतलियाँ ही तो हैं पर बागडोर एक तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार, मीडिया और कुछ हद तक न्यायालय के हाथों में है. चुनावों का समय है, ऐसे में इंतज़ार कीजिये सरकारी खजाने से शायद कठपुतलियों को भी सौगात मिल जाए.