भाजपा के खिलाफ हाशिये के जनजातियों का मोर्चा
गैर – अधिसूचित जनजातियों समेत कई समुदायों ने उठाया भाजपा विरोध का झंडा
गैर – अधिसूचित जनजातियों, घुमंतू जनजातियों एवं अर्द्ध घुमंतू जनजातियों ने लोकसभा चुनावों के ऐन पहले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ विरोध का झंडा बुलंद कर दिया है. पिछले कुछ सालों में हुई लिंचिंग एवं हमलों की घटनाओं में भीड़ के निशाने पर इन जनजातियों के रहने के मद्देनजर यह परिघटना महत्वपूर्ण है.
भारी तादाद में इन जनजातियों के लोगों ने कांग्रेस पार्टी के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया है. कांग्रेस पार्टी ने उनकी मुख्य चिंताओं को अपने चुनाव घोषणा – पत्र में जगह दी है.
छारा, नट, मदारी, दफेर समेत इन जनजातियों के कार्यकर्ता फिलहाल 14 राज्यों में फैले 125 समुदायों के बीच भाजपा के खिलाफ समर्थन जुटाने के लिए सक्रिय हैं.
एक संकलित उप – समूह के तौर पर आरक्षण से मिलने वाले लाभ का मुद्दा इन समुदायों की सबसे अहम चिंताओं में से एक है.
भाजपा के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार ने भले ही 20 फरवरी को गैर – अधिसूचित जनजातियों, घुमंतू जनजातियों एवं अर्द्ध घुमंतू जनजातियों के लिए एक स्थायी कल्याण एवं विकास बोर्ड का गठन किया है, लेकिन इन समुदायों के लोग केंद्र सरकार के विभिन्न कदमों से खुश नहीं हैं.
केन्द्रीय मंत्रीमंडल ने नीति आयोग के उपाध्यक्ष के नेतृत्व में एक समिति के गठन को मंजूरी दी है जो उन समुदायों के पहचान की प्रक्रिया पूरी करेगी जिनका औपचारिक रूप से अभी तक वर्गीकरण नहीं हुआ है. सरकार ने 2014 में एक समिति बनायी थी जिसे ऐसे समुदायों की पहचान करनी थी और तीन वर्ष के भीतर इसकी राज्यवार सूची बनानी थी.
गैर – अधिसूचित जनजाति अधिकार मंच के एक वरिष्ठ पदाधिकारी दक्षिण छारा ने बताया, “सरकार उन गैर – अधिसूचित जनजातियों, घुमंतू जनजातियों एवं अर्द्ध घुमंतू जनजातियों की सूची बनाना चाहती है जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में नहीं आते. लेकिन चूंकि ऐसी जनजातियों के अधिकांश लोग पहले से इन श्रेणियों में शामिल हैं और अधिकतर वंचित हैं, लिहाज़ा हम एक अलग अनुसूची या संकलित श्रेणी के तहत सुविधाओं की मांग कर रहे हैं. यह अपने – आप में यह दर्शाता है कि सरकार किस कदर भ्रमित है.”
उन्होंने आगे जोड़ा, “वर्ष 1952 से अबतक ऐसे 200 समुदायों को सूचीबद्ध किया गया है, लेकिन वर्तमान सरकार का दावा है कि ऐसी 400 जनजातियां हैं. हम सरकार के इस कदम को उन नए समूहों, जिन्हें भाजपा लुभाना चाहती है, तक पहुंचने और छारा, दफेर और पारदी जैसी वास्तविक तौर पर चिन्हित जनजातियों, जो पहले से ही अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में शामिल हैं, को उनके वाजिब लाभों से वंचित करने के प्रयास के रूप में देखते हैं. हम इसे ब्राह्मणवादी व्यवस्था के एक अन्य स्वरुप के तौर पर देखते हैं.”
उन्होंने इस बात की ओर भी इशारा किया कि पिछले एक साल से अधिक समय से ये समुदाय ध्रुवीकरण करने वाली दक्षिणपंथी ताकतों के निशाने पर रहे हैं. विभिन्न राज्यों गरीबों में भी गरीब समुदाय के लोगों को बच्चा – चोर और ऐसे अन्य अपराधों के अफवाहों के नाम पर भीड़ द्वारा पीट – पीटकर मार डाला गया है. इस किस्म की कुछ हरकतें गुजरात में हुई हैं. इसका सबसे वीभत्स उदाहरण शांति देवी मदारी की हत्या है. दो अन्य महिलाओं के साथ शांति देवी पर पिछले साल अहमदाबाद के व्यस्त वदाज इलाके में एक पुलिस चौकी के निकट एक भीड़ द्वारा दिनदहाड़े हमला किया गया था.
श्री छारा ने कहा, “भाजपा को हाशिये के लोगों की पार्टी के तौर पर नहीं देखा जा सकता. वह एक कल्याणकारी राज्य के विचार को ध्वस्त करने का प्रयास कर रही है.”
छारानगर इलाके में भी पिछले साल पुलिस का हमला हुआ था जिसमें महिलाओं और बच्चों तक तो नहीं बख्शा गया था. पुलिस द्वारा की गयी हिंसा और आगजनी के बारे में दो किस्म की बातें कही गयीं. पहला, यह कि इस पूरे घटनाक्रम की शुरुआत “नशे में धुत” छारा समुदाय के दो युवकों एवं एक पुलिसकर्मी के बीच झड़प से हुई. दूसरा, यह कि अवैध शराब के धंधे के खिलाफ पुलिस द्वारा अभियान चलाया जा रहा था और छारा समुदाय के लोगों ने पुलिस को ऐसा करने से रोकने का प्रयास किया.
इस घटना के बाद छारा समुदाय के लोगों ने अन्य गैर – अधिसूचित जनजातियों को साझा हितों के लिए एकजुट किया और लूनवाडा के कमलेश्वरी से अहमदाबाद के साबरमती आश्रम तक गैर – अधिसूचित जनजातियों की एक संपर्क - यात्रा निकाली.
राजस्थान के नट समुदाय के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता विक्रम नट ने द सिटिज़न को बताया, “नट समुदाय की महिलाओं को नीची नजर से वेश्याओं के रूप में देखा जाता है. अतीत में रजवाड़ों की दासी होने या राजसी दरबारों में गायन एवं नृत्य के पेशे से जुड़े होने के कारण मिले इस दाग को मिटाने के लिए कुछ भी नहीं किया गया है.”
उन्होंने आगे कहा, “पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने घुमंतू जनजातियों के लिए एक अलग बोर्ड गठित किया था. लेकिन बाद की भाजपा सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया.”
श्री नट ने इस तथ्य को भी रेखांकित किया कि कालबेलिया समुदाय के लोगों को जालोर, जोधपुर, बाड़मेर और जैसलमेर में आज भी श्मशान की आम जमीन पर अंतिम संस्कार करने से वंचित किया जाता है और उन्हें अपने मृत परिजनों को अपने आवास के निकट ही दफनाना पड़ता है.
श्री दक्षिण ने बताया कि पिछले कुछ महीनों में सामाजिक कार्यकर्ताओं ने नाटकों, फिल्मों एवं अन्य लोक कलाओं के माध्यम से इन समुदायों के मतदाताओं को उनकी राजनीति अवस्था से अवगत कराया है. उन्होंने कहा, “अपने संदेश को अधिक प्रभावी बनाने के लिए हमने अपनी चिंताओं को लोकगीतों, कहावतों और नृत्यों में शामिल किया है.” निश्चित रूप से, अधिकांश तौर पर अशिक्षित एवं अर्द्ध – शिक्षित इन समुदायों तक इस किस्म का संदेश पहुंचाना एक बड़ी चुनौती रही है.
अल्पसंख्यक अधिकार मंच एवं गैर - अधिसूचित अधिकार मंच जैसे विभिन्न संगठनों की मांग है कि राष्ट्रीय कौशल विकास कोष का पांचवां हिस्सा मुसलमानों, गैर-अधिसूचित जनजातियों एवं घुमंतू जनजातियों के पारंपरिक एवं गैर – पारंपरिक कौशल के विकास में खर्च किया जाये.
उनकी यह भी मांग है कि एक अभियान चलाकर इन समुदायों के लोगों को राशन कार्ड, आधार कार्ड, जाति प्रमाण – पत्र एवं बैंक खाता जैसे आवश्यक दस्तावेज मुहैया कराये जायें.
गैर – अधिसूचित जनजाति, घुमंतू जनजाति एवं अर्द्ध – घुमंतू जनजाति समुदाय के लोग अपने पारंपरिक एवं लोक कलाओं के प्रदर्शन के लिए खुली जगह की मांग लंबे समय से करते रहे हैं. वे अपनी सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण हेतु कलाकारों के प्रशिक्षण एवं विकास के लिए बजटीय प्रावधान की मांग भी करते रहे हैं.