विचार के स्तर पर हराने का गठबंधन मुकम्मल हुआ है

अनिल चमड़िया

Update: 2019-04-11 13:12 GMT

2019 का लोकसभा चुनाव भारतीय राजनीति के लिए एक नया अनुभव हैं। जब कांग्रेस लंबे समय तक एक परिवार के नेतृत्व में केन्द्र और राज्यों की सत्ता में रही तब कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी पार्टियों ने एक होने और गैर कांग्रेसवाद की नारा दिया था। इसके नतीजे भी सामने आए। केन्द्र और राज्यों की सत्ता से कई बार कांग्रेस को बाहर जाना पड़ा। लेकिन भारतीय जनता पार्टी पहली बार अपने बूते केन्द्र की सत्ता में आई और उसके राज काज करने के तौर तरीकों से लोगों के बीच इस तरह का माहौल बना है कि उसे संविधान के लिए खतरे के रुप में महसूस किया गया। विपक्षी पार्टियों ने गैर भाजपा का नारा लगाया और भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर लोकसभा के चुनाव के लिए प्रचार अभियान चलाया।

गठबंधन प्रदेश स्तरीय

2019 के लोकसभा चुनाव की यह एक खासियत हैं कि गैर कांग्रेसवाद के नारे के साथ विपक्षी पार्टियों के बीच गठबंधन को लेकर जो रजामंदी बनती थी वह पूरे देश के स्तर पर होती थी। लेकिन 2019 के चुनाव के दौरान संसदीय राजनीति में एक नया प्रयोग देखने को मिल रहा है। यह प्रयोग देश की संसद के लिए होने वाले चुनाव के लिए विपक्षी पार्टियों के बीच प्रदेश के स्तर पर गठबंधन। प्रदेश के स्तर पर गठबंधन की जरुरत इसीलिए हुई कि कांग्रेस को छोड़कर कोई भी पार्टी ऐसी नहीं है जो कि चुनावी दृष्टि से पूरे देश में चुनाव लड़ने और जीतने के ख्याल से मजबूत हो। हर प्रदेश में अलग अलग पार्टियां है और वे सभी अपने अपने प्रदेश में मजबूत हैं। यानी प्रदेश के स्तर कांग्रेस के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के बजाय कांग्रेस के साथ साझापन करने या अपने नेतृत्व में कांग्रेस को गठबंधन के लिए साथ रखने की हालात में है।

पहला सवाल

पहला सवाल यह है कि देश के स्तर पर भाजपा को हटाने का नारा विपक्षी पार्टियां दे रही है तो क्या सभी राज्यों में विपक्षी पार्टियों के बीच गठबंधन हुआ । यदि नहीं हुआ तो फिर भाजपा को हराने के नारे का क्या नतीजा निकलकर सामने आएगा। पहली बात तो भाजपा को हराने का नारे को दो स्तरों पर देखना चाहिए। पहला तो यह कि भाजपा को विचारधारा के स्तर पर हराने का इरादा भी इस नारे में शामिल है। दूसरा यह कि इसे चुनावी स्तर पर भी हराने के लिए विपक्षी पार्टियों का वोट बंटने से रोकने की कोशिश है। इस नजरिये से भाजपा हराओ के नारे और गठबंधन की जरुरत के बीच जहां तक रिश्ता बन सका है उसका विश्लेषण किया जा सकता है।

भाजपा की विरोधी जितनी पार्टियां है वह प्रदेश के स्तर पर भाजपा को हराने का चुनाव प्रचार कर रही है। जिन राज्यों में प्रदेश स्तर की पार्टियां है उन्हें ही भाजपा भी अपने चुनाव प्रचार में निशाने पर रख रही है। मसलन पश्चिम बंगाल में नरेन्द्र मोदी ने अपने प्रचार अभियान में अपना निशाना तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी को बनाया। आंध्र प्रदेश में चन्द्र बाबू नायडु को बनाया जो कि प्रदेश के मुख्यमंत्री और तेलुगु देशम पार्टी के नेता है। नरेन्द्र मोदी ने आंध्र प्रदेश के दौरे में नायडू को ही अपना निशाना बनाया। जबकि इन दोनों प्रदेशों में दो तरह की स्थितियां है। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस तेलुगु देशम के साथ गठबंधन मैं है जबकि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का गठबंधन वहां के दोनों ही विपक्षी पार्टियों के साथ नहीं हो सका है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के अलावा वाम मोर्चा मजबूत है। पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी अपना विस्तार करने के इरादे से चुनाव लड़ रही है । यानी वह पश्चिम बंगाल में लड़ाई में नहीं है। जबकि आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम और कांग्रेस की स्थिति लगभग एक जैसी है और इन दोनों पार्टियों की ही वहां सत्ता रही है।

प्रदेश स्तर की ताकतवर विपक्षियों में गठबंधन हुआ है

इन दो राज्यों में उदाहरण के आधार पर देखें तो यह दिखता है कि जिन राज्यों में भाजपा के विरोधी पार्टियों के गठबंधन की जरुरत ज्यादा महसूस की गई उन राज्यों में गठबंधन हुआ है। मसलन महाराष्ट्र में शरद पवार की पार्टी राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के बीच हुआ जबकि भाजपा और शिव सेना ने भी आखिरकार गठबंधन बनाया। बिहार में भी कांग्रेस के साथ लालू प्रसाद की पार्टी राजद और दूसरे भाजपा विरोधी दलों के बीच चुनावी गठबंधन हुआ । बिहार में केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ भाजपा विरोधी गठबंधन नहीं हो सकी। इन गठबंधनों के बीच देश की सर्वाधिक सीटों वाले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और उत्तर प्रदेश की दो मजबूत पार्टियों- समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के साथ चुनावी तालमेल नहीं हो सका है। यदि उत्तर प्रदेश के गठबंधन की स्थिति को समझना है तो दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। पहला तो यह कि राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ा और तीनों राज्यों में अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई। जबकि इन राज्यों में कांग्रेस के अलावा जो दूसरी भाजपा विरोधी पार्टियां थी वह भी चुनाव मैदान में उतरी थी। इसी तरह उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के ऐलान के पहले लोकसभा के लिए उप चुनाव हुए और उन क्षेत्रों में हुए जिन क्षेत्रों से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री से पहले चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। लेकिन वहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के सामने भाजपा के उम्मीदवार बुरी तरह चुनाव हार गए। जबकि उन चुनावों में भी कांग्रेस गठबंधन में नहीं थी। दरअसल भारत में संसदीय राजनीति का एक अपना स्वभाव है। वह कि यहां सत्ता पर काबिज पार्टियों को हराने के लिए मतदाता अपनी जिम्मेदारी को प्राथमिकता देता है। राजनीतिक पार्टियां हराने के लिए चुनाव नहीं लड़ती है बल्कि मतदाता विपक्षी पार्टियों को जिताने के लिए एकजुट हो जाते हैं। राजस्थान , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के अलावा उत्तर प्रदेश के उप चुनावों में भी यही देखने को मिला। मतदाता जब हराने के अभियान से जुड़ जाता है तो वह अपने स्तर पर हराने की हर संभव कोशिश करता है।

लोकसभा चुनाव में गठबंधन को देखने का नजरिया

चुनाव को दो तरह से देखना चाहिए। मतदाता बनाम सत्ताधारी दल और सत्तारूढ़ पार्टी बनाम विपक्षी पार्टियां। 2019 के चुनाव में विपक्षी पार्टियां दरअसल अपनी ताकत को बनाए रखने या अपने ताकत को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने के लिए आपस में प्रतियोगिता भी करती है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ गठबंधन का नहीं होने का मतलब यह होता है कि वह भाजपा विरोधी मतों के कई हिस्से हो सकते हैं। दरअसल जिन राज्यों में भाजपा विरोधी पार्टियों के बीच गठबंधन नहीं होने से विपक्षी पार्टियों के बीच वोटों का बंटवारा हो सकता था, उन राज्यों में प्रमुख विपक्षी दलों के बीच गठबंधन हुआ है और वह इन पार्टियों के भीतर भाजपा विरोधी आम मतदाताओं का दबाव है। दिल्ली में भी यह देखने को मिल रहा है कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन को लेकर काफी जद्दोंजेहद मची है। तमिलनाडु और कर्नाटक में भी वहां की राजनीतिक स्थिति के अनुसार गठबंधन के बीच सीटों का बंटवारा हुआ है।

2019 का चुनाव मतदाता लड़ रहा है। राजनीतिक पार्टियों पर भरोसा खत्म होने के बावजूद मतदाताओं के सामने और कोई विकल्प नहीं है कि वह सत्तारूढ़ गठबंधन के खिलाफ वह विपक्षी पार्टियों के बीच अपने लिए उम्मीदवारों को चुनें। मतदाता वैचारिक स्तर पर सत्तारूढ़ पार्टियों को पराजित करना चाहता है यह उसकी जब प्राथमिकता बन जाती है तो वह हराने वाले उम्मीदवारों में से किसी एक उम्मीदवार को भी अपने लिए चुन लेता है। पार्टियों के लिए एक दूसरे के मुकाबले ज्यादा वोट हासिल करना महत्वपूर्ण होता है लेकिन मतदाताओं का अनुभव जब इस स्तर पर पहुंचता है कि विचारधारा का खतरा है तो वह एक पार्टी के खिलाफ फैसले तक पहुंचकर ही रुकता है।
 

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