अब के चुनाव और पिछले चुनावों में एक बुनियादी अंतर , कार्यकर्ता कही नहीं है

अब के चुनाव और पिछले चुनावों में एक बुनियादी अंतर , कार्यकर्ता कही नहीं है

Update: 2019-05-02 14:36 GMT

कानपूर और उसके आस पास के क्षेत्रों में वर्ष २०१९ का चुनाव एक नये दौर की शुरुआत के संकेत देता है . इस चुनाव में ऐसे कई रुझान दिखायी दिये हैं जिससे यह कहा जा सकता है कि अब के बाद के चुनाव और पिछले चुनावों में एक बुनियादी अंतर है.

इन चुनावों में प्रत्येक पार्टी की रीढ़ की हड्डी , यानी उसका कार्यकर्ता कही दिखायी ही नहीं दिया है .पहले के चुनावों में अधिकाँश तौर पर यह कार्यकर्ता ही टोलियाँ बनाकर घर घर जाकर पार्टी के प्रत्याशी के लिए वोट माँगता था. उसका परिचय कराता था, उसकी मीटिंग संगठित करता था और मत डालने के एक दिन पहले वह प्रत्येक के घर में अपने प्रत्याशी के नाम की पर्चियां डाल आता था, जिसमें प्रत्येक वोटर का विस्तार होता था . यह सब वोटर को सहूलियत प्रदान करता था ताकि उसे वोट डालने के स्थान को ढूंढना नहीं पड़े .पार्टी कार्यकर्ता इसी के द्वारा अपना जनसम्पर्क बनाये रखता था, उनके कामों में उनकी मदद कर देता था और जनता से दो चार होता रहता था.

लेकिन इस चुनाव में ऐसा कुछ देखने में नहीं आया है. पार्टी कार्यकर्ता कही कही पर तो दिखाई दिया लेकिन अधिकाँश स्थानों पर वह नहीं देखा जा सकता है . अधिकाँश स्थानों पर किसी भी पार्टी का प्रचार करने के लिए प्रत्याशी ना तो खुद ही गया था और ना ही उसके कार्यकर्ता ही गये . मत दाता के पास कोई नहीं पहुंचा . कोई पम्फलेट या कागज़ किसी भी प्रकार का नहीं मिला ,न हीं दिखायी ही दिया . यदि छपे भी थे तो बहुत कम मात्रा में. चुनाव समाप्त होने तक अधिकाँश प्रत्याशियों ने समूचा चुनाव क्षेत्र तक नहीं देखा था.

इसका क्या कारण है? एक तो चुनाव आयोग की विधि इस प्रकार की है कि अधिकाँश कार्यकर्ताओं का काम अब वह स्वयं ही करने लग गया है .पर्चियां अब उसी के कर्मचारी वितरित करते हैं . इसी कार्यकर्ता की ज़रुरत नहीं है. बाकी सभी काम भी अब सरकारी तंत्र करने लगा है और प्रचार का काम मीडिया के जिम्मे है, जिस पर हम बाद में आएंगे.

चुनाव प्रचार का काम भी उसके हाथ जाता रहा है.यह इसलिए कि, ट्रांस्गंगा के किसान नेता हरीन्द्र निगम के अनुसार , इन राजनैतिक पार्टियों ने देश की जनता को धर्म और जाति मैं बाँट दिया है और जनता की भावना ऐसी बना दी गयी है की वह बरबस अपनी जाति वाले की ही ओर आकर्षित होता है . इसलिए पार्टियों को अब केवल प्रत्याशी की जाति और धर्म इत्यादि को ही देखना होता है बाकी सब अपने आप ही हो जाता है. पार्टी का प्रोग्राम या उसकी विचार धारा पर चर्चा नहीं होती है . यदि कभी लगता है कि इन विषयों पर चर्चा होगी , तो देखते देखते ये पार्टियां विषयों को बदल देती हैं . इस चुनाव में भी यही देखने को मिला .इसमें जनता की बेहतरी के लिए पैकेज और संस्थानों का हनन और सेकुलरिज्म इत्यादी पर विवाद होने की गुंजाईश थी और यह विमर्श शुरू भी हो गया था. लेकिन अचनाक ही बीच में ही इन विषयों से हट कर दुसरे अन्य विषयों पर बातें होने लगी जो अधिम्कांश तौर पर व्यक्तिगत के ही क्षेत्र में ही आते हैं. यह परिवतन यकायक हुआ , जैसे अचानक अहसास हुआ हो कि हम खतरे वाले स्थान की ओर बढ़ रहे हैं . जब जाति और धर्म के आधार पर ही चुनाव करने को मजबूर करना है तो कार्यकर्ता की भूमिका घट जाती है .

मध्यम वर्गों में खासकर हिन्दू मध्यम वर्ग को मुसलमान फोबिया ने डस लिया है. सफल व्यवसायी , अच्छी प्रैक्टिस के डाक्टर वे सभी आज एक ही बात करते हुए दिखाई दे रहे हैं. “मोदी ने खुद कुछ ख़ास किया हो ऐसा नहीं है . लेकिन मोदी चला गया तो मुसलमान सर चढ़ कर बोलेगा.जब तक मोदी है तब तक मुसलमान को कंट्रोल किया जा सकता है . मुसलमान को अनुशासित करने के लिए मोदी ज़रूरी है. यह आम भावना मध्यम वर्ग की है, बाकी सब वह छोड़ने के लिए तैयार है.

इस चुनाव को मोदी केन्द्रित बना दिया गया है. वोटरों से चुनने के लिए यह कहा जा रहा है कि मोदी के पक्ष में या विपक्ष में. प्रत्याशी कोई मायने नहीं रखता है.मुद्दे कोई मायने नहीं . मोदी है तो संभव है, इत्यादि. ऐसे चुनाव में निरन्तर प्रचार की ज़रुरत नहीं है . मुद्दा ही बदल दिया गया है.मोदी को निरंतर मीडिया में स्थापित रखना . 24x7 उसे बोलते हुये दिखाना. प्रिंट और इन्टरनेट और चैनेल में मोदी को निरंतर स्थापित किया गया है और किया जा रहा है.ये सभी माध्यम या तो सरकार के हैं या मोदी पक्षीय पूंजीपतियों के हैं.इसलिए इस पूरी प्रक्रिया के एक वृहद योजना के रूप में ही देखना चाहिए, जिसमें पूंजीपति वर्गों के द्वारा मोदी को सर्वोच्च नेता के रूप में स्थापित किया जा रहा है.वह पार्टी से ऊपर है, वह सभी नियमों से ऊपर है . एक नयी व्यवस्था का सृजन किया जा रहा है और इसमें पुराने प्रकार के राजनैतिक कार्यकर्ता की ज़रुरत नहीं के बराबर है .ऐसे कार्यकर्ता बल्कि एक मुसीबत ही हैं , क्योंकि सभी काम भाड़े के स्वयंसेवकों के द्वारा किया जा सकते हैं जो कि कोई नैतिकता का सवाल नहीं उठाते हैं और एक अच्छे सेवक की तरह काम करते रहते हैं.

इन्ही सब कारणों से एक नए किस्म का नेता पैदा किया जा रहा है , जिसका पार्टी से कोई रिश्ता नहीं रहा है, जो कभी भी किसी जनता की समस्या के साथ नहीं जुडा रहा है. उसे ऊपर से लाकर जनता के ऊपर बिठा दियाजाता है . गुण यह होना चाहिये कि उसे किसी बड़ी जाति का समर्थन प्राप्त हो और एक हैसियत हो या बनायी जा सकती हो . आज ऐसे तमाम लोग सीधा खेल कूद के मैदान से , अथवा सिनेमा में अच्छे भूमिका नहीं मिलने के कारण , या किसी भी अन्य कारण जिसमें यह लगे के यह सीट निकाल सकते हैं, को खड़ा किया जा सकता है .

चूंकि कोई वैचारिक विषय नहीं है जिस पर मतभेद हो और यदि हैं भी तो उन्हें नज़रअंदाज किया जा सकता है या सुलझाया जा सकता है , इसलिए एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाना कोई मुश्किल काम नहीं है और आप के सम्बन्ध उस पार्टी से बने रहेंगे जिसे आप छोड़ कर आये हैं . उससे कोई अंतर नहीं पड़ता है . इसलिए एक ऐसा कबीला निर्मित हो गया है जिसे किसी भी समय किसी भी समय किसी भी पार्टी से टिकट दिया जा सकता है , शर्त यह है कि उसे लगे कि वह सीट निकाल सकेगा. पार्टियों में वर्गीय अंतर के घट जाने से यह काम बहुत आसान हो गया है. इस नज़रिये से देखने पर यह साफ हो जाता है की जनता पर सभी पार्टियां एक नए तरीके से नियंत्रण स्थापित कर रही हैं , जिसमें पुराने प्रकार का पार्टी का ढांचा या कार्यकर्ता नहीं चाहिये , नए किस्म के वर्कर चाहिये जो पारिश्रमिक लेकर काम करे.पार्टी नेतृत्व भी स्थायी सा ही होगा या तब तक रहेगा जब तक पूंजीपति वर्गों को स्वीकार होगा या उनके अनुसार काम करेगा.

जनता का इस पर क्या जवाब है इस पर आने से पहले लखनऊ के चुनाव पर एक नज़र डाल लेना उचित होगा .शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नीं, पूनम सिन्हा, जाति से कायस्थ हैं लेकिन लखनऊ से कोई रिश्ता नहीं है. इन्हें गठबंधन ने अपना प्रत्याशी चुना है अधिकांश का यह मानना है की यह सीट भाजपा के राजनाथ सिंह को वाक ओवर दे दिया गया है. कुछ अन्य ने इसे न्यायोचित ठहराते हैं कि सिन्हा कायस्थ और मुस्लमान वोट के संयुक्त हो जाने से राजनाथ सिंह को काफी तकलीफ पहुंचा सकते हैं. मूल मुद्दा यह नहीं है . मुद्दा यह है की गठबंधन के पास कोई अपना नेता नहीं था ? क्या कोई ऐसा कार्यकर्ता नहीं था जिसे वह खड़ा कर सके ? ऐसी दशा में हर पार्टी के पास अब कार्यकर्ताओं की कमी हो गयी हैं क्योंकि समूचे जीवन मेहनत करने के बाद टिकट दूसरे को मिलता है इसलिए कार्यकर्ता पैदा नहीं हो रहे हैं उनका स्थान भाड़े के कार्यकर्ता ले रहे हैं. राजनैतिक पार्टियों के चरित्र में एक बुनियादी परिवर्तन आ रहा है.वैचारिक आधारों में पहले परिवर्तन आ चुका है अब उसी के अनुसार उनका ढांचा , कार्यकर्ता को भी बदला जा रहा है.

लेकिंन जनता चुप नहीं बैठी हैं और वह अपने तरीके से सोच समझकर राजनैतिक दलों की बातों पर अपना निर्णय ले रही हैं.कानपुर महानगर के चुनाव में गठबंधन के प्रत्याशी राम कुमार निशाद को दलितों ने नकार दिया है और उन्होनें अपना वोट भाजपा को स्थानांतरित कर दिया . उधर मुसलमान वोट में यह दुविधा थी कि वे कांग्रेस के श्री प्रकाश जायसवाल को दे अथवा गठबंधन प्रत्याशी को . लेकिन कुछ मुस्लिम कार्यकर्ताओं, जैसे तारिक रजा फातमी ने यह साफ किया कि जब यह स्पष्ट हो गया कि निषाद कही भी लड़ाई में नहीं है तो समाजवादी पार्टी के नेताओं ने स्वयं ही प्रमुख प्रभावशाली लोगो को यह सलाह दे दी के वे अपना वोट कांग्रेस को दे दे. लेकिन इस अद्ला बदली में गठबंधन का पिछड़ी जातियों का वोट ट्रान्सफर नहीं हुआ और उनमें अधिकांश ने वोट नहीं डाला , जिससे मतदान प्रतिशत पर असर पड़ा. लेकिन मुसलमान का वोट पूरे तौर पर कांग्रेस प्रत्याशी श्री प्रकाश जायसवाल को पड़ा.

इसलिए गठबंधन अपने परंपरागत अनुयायियों पर अपनी बात नहीं लागू कर सका क्योंकि उसने प्रत्याशी ऐसा नहीं दिया जिसका उसके वोटर सम्मान करते.

उधर ट्रांस्गंगा के किसानों ने चुनाव का कुछ इलाकों में सफल बहिष्कार किया है .बूथ सेक्टर कन्हावापुर में ६७० में से केवल २९१ लोगों ने मतदान किया . किसानों द्वारा दिए गए चुनाव बहिष्कार के नारे के कारण ज़्यादा बहिष्कार नहीं हुआ , जिसमें मुरलीपुर में २७० लोगों में से केवल १० लोगों ने मतदान किया है . किसान नेता सनोज यादव ने कहा कि बाकी स्थानों पर मतदान हुआ है वहाँ जिस हद तक हम चाहते थे उस हद तक बहिष्कार नहीं करवा पाये.

किसान नेता हरीन्द्र निगम ने स्पष्ट किया की जो लोग आन्दोलन के साथ हैं उन सब ने बहिष्कार किया हैं बाकी लोगों ने वोट डाला है. हम इस काम को ज़बरदस्ती नहीं करना चाहते हैं .ऐसा करने से टकराव की सम्भावना है, हम टकराव की नीति के विरोध में हैं.

दो बड़े गाँव में सफल बहिष्कार बहुत मायने रखता है इससे भविष्य की नीव स्थापित हो गई हैं . यहाँ पर दोनों पार्टियां और प्रशासन निष्प्रभावी रहे हैं .लेकिन उन्नाव जिले की बीघापुर तहसील में जहां आन्दोलन नहीं है ,वहां कुछ कार्यकर्ताओं द्वारा दिए गए बहिष्कार का नारा केवल नारा ही होकर रह गया, इन गाँव में वोट प्रतिशत ४७-४८% तक पहुंचा.

कानपुर शहर में मजदूरों में अलग अलग सोच है. जल विभाग के एक श्रमिक के अनुसार गठबंधन को वोट देना बेकार है , भाजपा के स्थान पर कांग्रेस को, वोट देना चाहिये .गठबंधन की सोच उस स्तर की नहीं है कि वह दिल्ली में सरकार बना ले , वे इस काम के काबिल नहीं है . यह राज्य का चुनाव नहीं है. लेकिन एक अन्य ने गठबंधन के लिए सहमति दी क्योंकि इन दोनों बड़ी पार्टियों से बचने का यही तरीका है . लेकिन एक अन्य मजदूर ने भाजपा के पक्ष में राय यह कहकर दी के मोदी के अलावा और कोई नेता नहीं है.

इन चुनावों में सभी पार्टियों ने यह प्रयास किया है कि जनता को अपने कंट्रोल में रखे और और अपने निर्धारित रास्ते पर ले जाय . अधिकाँश तौर पर वह सफल हुए हैं लेकिन जनता में अभी बहुत जान है और इसका इन पार्टियों से मुक्त होने का संघर्ष जारी है ।
 

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