जजों की संख्या बढ़ने से फैसले जल्दी हो सकते हैं लेकिन लोगों को न्याय चाहिए
नीचली अदालतों का रिश्ता 99 प्रतिशत लोगों से होता है
समाज के अधिकांश लोग यह मानकर चलते हैं कि न्याय का मुद्दा, न्यायपालिका में सुधार का प्रश्न तो जजों, वकीलों ओर सरकार का काम है आम आदमी को इससे क्या लेना देना? क्योंकि इसके लिए कानून की मोटी- मोटी किताबें पढ़नी पडेंगी, अधिनियमों को समझना होगा। यह हमारा भ्रम ओर अनभिज्ञता हैं, ऐसे ही कुछ भ्रम ओर भी है जो इन सुधारों को ओर पेचीदा बना देते हैं जैसे कुछ लोगों का तर्क रहता है कि अदालतों में जजों की संख्या बढ़ा दो , कोर्ट रूम ओर स्टाफ ज्यादा कर दो, सरकारी वकीलों की संख्या बढ़ा दो, न्यायपालिका की दोहरी शिफ्ट लगा दो तो इस समस्या का समाधान हो जाएगा,। दरअसल ये स्तही स्तर की बातें जो उन्ही में कुछ पढ़े लिखे लोग इस बहस को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति और उनका कार्य आवंटन का निर्धारण जिसे मास्टर ऑफ रोस्टर कहा जाता है तक ले जाते हैं ।
इस बात से कोई दो राय नही कि ये मुद्दे अहम है लेकिन प्रश्न यह है कि कितने लोग हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जा पाते हैं ? मुश्किल से एक प्रतिशत से भी कम। इसलिये हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के मुद्दे बशर्ते गम्भीर हैं लेकिन इन मुद्दों को कुछ समय के लिए साइड में रखें और उन 99 प्रतिशत लोगों की बात करें जिनका संबंध अधीनस्थ न्यायपालिका तक होता है। जिन लोगों का यह तर्क है कि अधीनस्थ न्यायपालिका में 2.6 करोड़ केश पेंडिंग हैं अगर अदालतें और जजो कि संख्या बढ़ा दें तो इन मुकदमों को जल्दी निपटाया जा सकता है, तो मुझे उस निपटाने शब्द से ही आपत्ति है क्योंकि इससे यह तय नही होता कि उस व्यक्ति को न्याय मिला या केवल मुकदमे को निपटा दिया। यही अहम सवाल है कि वकीलों , जजों, कोर्ट रूम की संख्या बढ़ा देने से यह तय नही होता कि इससे लोगों को न्याय मिल रहा है। अगर अधीनस्थ न्यायालय के निर्णयों की गुणवत्ता के लिहाज से देखा जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि संख्या बढ़ा देने से फैसला जरूर जल्दी हो सकता है लेकिन इससे न्याय तक पहुँच बनेगी या नहीं यह तय नहीं होता वो मात्र तथ्यों के आधार पर दिया गया फैसला भर है।
प्रश्न यह है जब 99 प्रतिशत लोग इस दम-घोटु व्यवस्था में फंसे पड़े हैं जिनकी न कोई सुधार की बात करता है न बदलाव की और इस व्यवस्था से न जज को कोई मतलब है न ही वकील को कोई फर्क पड़ता है ।सरकार और राजनीतिक दल के तो ये एजेंडे में ही नही है, सिविल समाज को इससे क्या लेना देना क्योंकि उसके पास पैसे की ताकत है वो अच्छा वकील खड़ा कर सकता है , दोषी होते हुए भी छूट जाएगा। कुछ लोग तटस्थता की चादर ओढ़ लेते हैं, कहीं ऐसा तो नही है कि इस सड़ चुकी न्यायिक व्यवस्था से कानून ओर राजनीति से जुड़े लोगों को फायदा है?
अकेले राजस्थान में अधीनस्थ न्यायपालिका में पेन्डिंग मुक़दमों की संख्या 13 लाख से अधिक है, सरकार और कुछ कानून के जानकार लोगों का दावा है कि लोग समझदार ज्यादा हो गए हैं इसलिए मुकदमो की संख्या बढ़ रही है मैं इसके उल्टा बात कह रहा हूँ कि शायद एक प्रतिशत से भी कम मामले है जो रिपोर्ट करते हैं अन्यथा मुकदमों से ही अदालतें भर जाएगी ।
विडंबना यह नही है कि लोगों को न्यायपालिका की स्थिति का अंदाज़ा नही है बल्कि विडम्बना यह है कि लोग इसे अपना मुद्दा ही नही मानते । लेकिन मुख्य सवाल यही है जब तक “अधीनस्थ न्यायपालिका में सुधार” समाज के विमर्श का प्रश्न नही बनेगा तब तक सुधार के बिंदु आएंगे कैसे ?
अगर किसी दिन अधीनस्थ न्यायपालिका में जाने का मौका मिले तो जरूर जाइए और उस कोर्ट रूम के मिजाज का अध्ययन करें । आप एक दिन में मानसिक तौर पर विक्षिप्त नही तो कम से कम रोगी जरूर बन जायेंगे। किसी भी कार्यक्षेत्र का अपना एक पारिस्थितिकी और कार्य संस्कृति होती है और यह उस संस्था से संबंधित और कार्यरत व्यक्ति पर निर्भर करता है कि संस्था की छवि कैसी बनेगी। न्यायपालिका के संदर्भ में सुधार के बिंदु ऐसे होने चाहिए जो उस कोर्ट रूम के वातावरण को व्यक्ति के उन्मुख बनाये वहां केंद्र में न्याय हो न कि वकील ओर जज का संबंध ।